जाति-धर्म के बिना कैसी राजनीति !

Last Updated 22 Jan 2017 05:51:24 AM IST

चुनावी राज्यों में चुनावी ज्वार जोरों पर है. पंजाब में 117 में से सौ सीटों पर जीत का दंभी दावा पेश करने वाली आम आदमी पार्टी के उद्घाटक प्रवेश ने और कभी पंजाब में बीजेपी का चुनावी चेहरा रहे नवजोत सिंह सिद्धू के कांग्रेस प्रवेश ने यहां चुनावों को रोचक बना दिया है.


जाति-धर्म के बिना कैसी राजनीति !

लेकिन पंजाब से भी ज्यादा लोगों की निगाहें लगी हैं, उत्तर प्रदेश के चुनाव पर जहां पिछले कुछ दिनों में बहुत कुछ हो गुजर गया है. समाजवादी पार्टी में खासे घरेलू विवादों के बाद अखिलेश यादव की सत्ता निर्विवादित तौर पर स्थापित हो गयी है. बहुत से पालाबदल नेताओं ने अपनी-अपनी नई पार्टियों से टिकट कबाड़ लिए हैं और पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं की नाराजगी की कीमत पर खासे खुश हैं. प्रत्याशियों की सूचियां लगभग जारी हो चुकी हैं, जो रही-बची हैं, वे भी जारी होने की प्रक्रिया में हैं. इक्का-दुक्का आंय-बांय बक देने वाले साक्षी महाराज जैसे महा राजनेताओं को छोड़ दें तो सतही तौर पर लगता है कि सभी पार्टियों और नेताओं ने सर्वोच्च न्यायालय के चुनाव में जाति-धर्म के इस्तेमाल विरोधी आदेश को सर माथे लिया है और सिर्फ विकास को ही अपना महा मुद्दा बनाया है. प्रत्याशियों की सूची जारी करने में उन्होंने मात्र एक ही ‘भोली’ संभावना को ध्यान में रखा है कि उनका प्रत्याशी विजयक हो यानी चुनाव में विजय प्राप्त कर सकने वाला हो. और अगर टेली-संग्रामों में से शब्द उठाया जाये तो ‘विनेबुल’ हो.

अब जरा एक प्रत्याशी की ‘विनेबिलिटी’ यानी विजय की संभावनाओं को निर्मित करने वाले तत्वों का विश्लेषण कर लीजिए. सोचिए कि जब एक दल किसी क्षेत्र से किसी विजयक को प्रत्याशी घोषित करता है तो वह उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां जाति और धर्म जड़ीभूत कारक हैं, उसकी किन विशिष्टताओं की गणना करता है. यानी वे कौन से तत्व हैं, जो एक प्रत्याशी को अपनी पार्टी की नजर में विजयक बनाते हैं. सबसे पहला तत्व तो यह है कि एक प्रत्याशी की अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व तक पहुंच कैसी है यानी शीर्ष नेतृत्व के प्रति उसकी निष्ठा कितनी मजबूत आंकी जा रही है. दूसरा तत्व है कि चुनाव संघटन की उसकी क्षमता कैसी है यानी क्या वह इतने धन का स्वामी है या वह इतना धन जुटा सकता है, जिसमें से वह पार्टी कोष को भी पैसा दे सके और अपना प्रचार भी संभाल सके. तीसरा तत्व है कि क्षेत्र की जनता पर उसका प्रभाव कैसा है और क्यों है यानी प्रत्याशी का किस मतदाता समूह में प्रभाव है और यह प्रभाव उसकी जाति के बल पर है या उसके संप्रदाय के बल पर या उसकी दबंगई के बल पर.

जिस क्षेत्र में जिस प्रत्याशी की बिरादरी के मतदाता ज्यादा होंगे या उसके संप्रदाय के मतदाता ज्यादा होंगे तो वह जाति या संप्रदाय की बहुलता के कारण अपनी पार्टी की नजर में चुनाव लड़ने का दावेदार हो जाता है. यानी पैसा, बाहुबल, जाति, संप्रदाय, संबंध, और इन सबको कुशलता से इस्तेमाल कर लेने की क्षमता ही एक व्यक्ति को विजयक बनाती है फिर पार्टी का प्रत्याशी. स्पष्ट है कि जीत की सारी संभावनाएं धन, जाति, संप्रदाय और बाहुबल के इर्द-गिर्द निर्मित होती हैं. जिस प्रत्याशी के पास इनमें से किसी भी तत्व का प्रभाव नहीं है उसकी दावेदारी स्वत: ही निरस्त हो जाती है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां जाति और संप्रदाय के आग्रह राजनीति की नसों में खून की तरह प्रवाहित होते हों वहां किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता के लिए इनसे बचकर निकलना असंभव है. फिर चाहे सर्वोच्च न्यायालय कैसे भी आदर्शवादी फैसले सुनाए या चुनाव आयोग कैसे भी निर्देश जारी करे.

राजनीतिक नेता और पार्टियां प्रत्यक्ष तौर पर भले ही जाति-संप्रदाय की बात न करें, लेकिन परोक्ष तौर पर बिना इनका सहारा लिए या इनकी कसौटी पर प्रत्याशी को बिना कसे वे उसकी दावेदारी स्वीकार नहीं करतीं. जब भी मीडिया किसी सूची का विश्लेषण करता है तो वह बताता है कि किस जाति बहुल क्षेत्र से किस जाति के व्यक्ति को किस पार्टी ने अपना प्रत्याशी बनाया है. अगर कोई मुस्लिम बहुल क्षेत्र है तो सभी पार्टियां वहां मुस्लिम प्रत्याशी खड़े करती हैं, दलित बहुल क्षेत्र में दलित प्रत्याशी, सवर्ण जाति बहुल क्षेत्र है तो सवर्ण प्रत्याशी और अगर पिछड़ा-अति पिछड़ा जाति क्षेत्र है तो वहां इसी जाति के प्रत्याशी की दावेदारी स्वीकार की जाती है.

राजनीति में गुंडों और बाहुबलियों का प्रवेश भी जाति और संप्रदाय से वैधता प्राप्त करता है. जो व्यक्ति मुसलमानों के खिलाफ बोलता है वह कट्टर हिंदुओं का नेता हो जाता है और जो व्यक्ति हिंदुओं के विरुद्ध जहर उगलता है,वह मुसलमानों का नेता हो जाता है. भारतीय राजनीति में खासकर, उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुत से ऐसे चर्चित चेहरे हैं, जिनकी पहचान उनकी इसी विशेषता की वजह से होती है. उनकी यह विशेषता उन्हें राजनीति में बने रहने की और चुनाव जीतने की पक्की गारंटी देती है. यही स्थिति गुंडों और बाहुबलियों को अपने-अपने जाति, संप्रदाय के बल पर राजनीतिक नेता  बनने की खाद उपलब्ध कराती है. कुछ दिन पहले गुजरात का चर्चित पटेल नेता हार्दिक पटेल उत्तर प्रदेश के पटेलों को संबोधित करते हुए कह रहा था कि हम ददुआ महाराज की संतान हैं, हमें कोई नहीं हरा सकता. उत्तर प्रदेश का बच्चा-बच्चा जानता है कि ये ददुआ महाराज बुंदेलखंड के वह दुर्दात डकैत हैं, जिनके खाते में अनगिनत हत्याएं और डकैतियां दर्ज हैं. ददुआ महाराज के इसी प्रताप के कारण उनके भाई-बेटों को अपनी गोद में लेकर राजनीतिक दलों ने अपने आप को धन्य किया. हार्दिक पटेल के जैसे संबोधन हर जाति-क्षेत्र में देखे-सुने जा सकते हैं.

यह ठोस सच्चाई है कि जाति विशेष या संप्रदाय विशेष बहुल क्षेत्रों से कोई भी ऐसा प्रत्याशी दावेदारी नहीं कर सकता, जो किसी भिन्न जाति-संप्रदाय का हो, जो जाति विरोधी हो, संप्रदाय विरोधी हो या जो अपनी जाति और अपने संप्रदाय की बेहूदगियों के विरुद्ध खुलकर आवाज उठाता हो. कहिए कि राजनीति में जाति और संप्रदाय के हस्तक्षेप के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के भाव के अनुकूल खड़ा होता हो या चुनाव आयोग के निर्देशों का उनके भावानुसार पालन करना चाहता हो.

सर्वोच्च न्यायालय या चुनाव आयोग के निर्देशों पर राजनीतिक दल भले जाति और संप्रदाय का खुला आह्वान करें और भले वे विकास का मुखौटा लगा लें, मगर उनके सारे चुनावी समीकरण जाति और संप्रदाय के आधार पर ही तैयार होते हैं, वे निर्देशों का पालन करने का सिर्फ पाखंड रचते हैं. इस तथ्य पर कोई गंभीरता से विचार नहीं करता कि जाति और संप्रदाय के दुराग्रहों को समाज से मिटाये बिना इन्हें राजनीति से नहीं मिटाया जा सकता.

विभांशु दिव्याल
वरिष्ठ पत्रकार


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