मीडिया : चरचे और चरखे

Last Updated 15 Jan 2017 02:48:34 AM IST

ईश्वर कृपा से भारत में कहीं न कहीं कोई न कोई मिनी महाभारत छेड़ा जाता रहता है और दर्शकों का मनोरंजक किया जाता रहता है.


मीडिया : चरचे और चरखे

चरखे पर छिड़ा मिनी महाभारत भी ऐसा ही है. इसमें न मोदी जी का कसूर है न खादी आयोग का कसूर.  इसे ‘होनी’ ही कहा जा सकता है जो ‘होके’ रहती है कहा भी है ‘होनी तो होके रहे अनहोनी ना होय!’
हमारे एंकर फिर भी ‘होनी’ पर ही बहसें उठाते रहते हैं, बताइए होनी पर भी क्या कोई बहस की जा सकती है? होनी को होना था, हो गई. ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही हुआ होगा: एक सुबह खादी वालों के हृदय में भक्तिभाव का भीना भीना दौरा पड़ा होगा कि खादी के कलेंडर डायरी सब सूने हैं, न गांधी छपते हैं न कोई और महात्मा! खाली जगह भरने के लिए होती है तो क्यों न उसे मोदी जी की ‘चरखालीला’ से भर दिया जाए. इसलिए मोदी जी का चरखा चलाने वाला चित्रा चिपका कर प्रिंट करा दिया!

लेकिन कांग्रेस और कुछ  एंकर चौंके बिना नहीं माने और न जाने कैसी-कैसी बातें करने लगे! कहने लगे कि राष्ट्रपिता की जगह छीनी जा रही है! मोदी गांधी बने जा रहे हैं.. ऐसे गंदे आरोपों का जबाव देने के लिए भी प्रवक्ता जनों को कष्ट करना पड़ा! प्रवक्ता बोला कि राष्ट्रपिता की जगह कोई नहीं छीन सकता. वे पिता है पिता की जगह कोइ नहीं ले सकता लेकिन कलेंडर की जगह छह साल से खाली जा रही थी, खादी वालों ने उसे भर दिया. क्या गुनाह किया मोदी जी ने, खादी की सेल को चार फीसद तक बढ़ा. दिया वे खादी के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसेडर हैं. 

बताइए खादी पर भी बहस चरखे पर भी बहस अब गांधी चलाते हैं तो क्या मोदी जी भी न चलाएं! चरखे पर किसका बस! सूत कते न कते खाली पड़े रहने से बेहतर है कि चरखा चलता तो दिखे! यही किया है मोदी जी ने. आलोचक को पूछना था तो पूछते कितना काता? खादी एक इतिहास है वह स्वदेशी आंदेालन की प्रतीक रही है, आजादी के बाद उसके कुरते पाजामे मिडिल क्लास के घरों में स्लीपिंग गाउन बने हैं! आजकल अंग्रेजी एलीट उसे उदात्त दिखने के लिए पहनता है. मोदी जी के टच से वह ग्लोबल ब्रांड बन गई तो क्या गुनाह! कलको ट्रंप तक पहनेंगे! क्या समझते हैं मोदी जी के जादू को? जिसे छू लेते हैं वही हिट हो जाता हैं! खादी मल्टीनेशनल बनने वाली है!  कांग्रेस व्यर्थ ही चिल्लपौं करती है, सत्तर साल से खादी को कुरते पाजामे रिड्यूस करके रखा. मोदी जी ने पहले जाकिट उद्धृत किया. आज देखते  हर चैनल पर हर दफतर में, हर मीटिंग में हर आदमी मोदी जी वाली जाकिट ही पहनता है! इसे कहते हैं:ब्रांडिंग मोदी वाली!

चैनलों ने इसे आयोग की राजनीतिक चमचागीरी कहा! बाकी चरचकों ने इस बात को धिक्कारा! ये क्या बात हुई? चैनल चमचागीरी का दूसरा नाम है और यहां आक्षेप लगाते हैं? कितनी गलत बात है! ‘चमचागीरी’ भक्ति का एक चरण है. नवधाभक्ति में ‘दैन्यं च मानमषित्वं भयस्य प्रिय दर्शनम्’ चलता है, इक्कीसवी सदी की भक्ति भावना मे दैन्य की जगह ‘चमचत्वं चापलूसं चमत्कारं नम:’ का क्रम बना करता है. अगर खादी वालों ने ऐसा किया तो क्या गलत किया? भक्ति काल सर्वव्यापी है, कांग्रेस में सोनिया राहुल की भक्ति है तो भाजपा में मोदी जी की है! आप करें तो डेमोक्रेसी हम करें तो चमचागीरी!  सारी बहसों में असली मुददा किसी ने नहीं उठाया. मुददा है कि डिजिटल इंडिया के हल्ले में क्या अब भी कोई कलेंडर देखा करता है? कोई डायरी रखा करता है? अगर नई सड़क जाएं या सदरबाजार जाएं और कलेंडर डायरी की गिरती सेल देखें तो मालूम हो जाएगा कलेंडर के दिन लद गए! सब कुछ डिजिटलाय रहा है, ऐसे में कागज के कलेंडर कोैन मूर्ख छपावाएगा? लेकिन भक्त ऐसा कर सकता है! 

कलेंडर या तो विजयमाल्या का शौक रहे या सरकारी उद्यमों के अब तक के बचे शौक हैं. मुझे मेरी बैंक ने पूरे पैसे कभी न दिए लेकिन दो कलेंडर थमा दिए. जगह ही नहीं हैं दीवार पर टागंसकू,सो रद्दी की टोकरी में डाल दिए हैं, इन डिजिटलाये दिनों में कलेंडर मोहंजोदडो काल के आइटम लगते है जिन्हें कोई लेना देना नहीं चाहता और जो रद्दी में जाने हैं .
एक दिन चरखे के ये कलेंडर भी फेंक दिए जाएंगे और सच कहता हूं कि मुझ जेैसे नास्तिक तक को यह अच्छा नहीं लगेगा कि मोदी का चित्र जिस पर हो वह रद्दी बने! माना जाता है कि भक्त के वश में हैं भगवान! ऐसे में ऐसे भक्तों को कौन समझाए?

सुधीश पचौरी
लेखक


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