मुख्य अतिथि होने की गारंटी

Last Updated 30 Nov 2011 12:16:34 AM IST

मैं उस कार्यक्रम का मुख्य अतिथि था. आयोजकों ने कार भेजने का वादा किया हुआ था.


लेकिन मुझे रिक्शा करके आना पड़ा था. इस रिक्शा-प्रसंग के चलते मैं अपने को घोर अपमानित अनुभव कर रहा था तथापि उन्होंने मुझे ससम्मान मंच पर बिठा दिया था.

मैं भीतर से कुंठित था. इसलिए कि कहां हमें रिक्शा पर बिठा कर इज्जत को कम किया गया. कार-वार आती तो उस पर बैठते और सम्मेलन स्थल पर अदा से उतरते हुए मैं अनायास ही अपने को सम्मानित होने की घोषणा कर सकता था. इससे बिना मेरे बोले ही मेरा रौब अच्छा-खासा उन पर गालिब हो जाता. मैं मन ही मन कुढ़े जा रहा था.

बाहर संचालक माइक पर मेरी प्रशंसा में कशीदे काढ़े पड़ा था-हम अतिशय आभारी हैं माननीय पांडेजी के कि उन्होंने अपने व्यस्ततम समय में से कुछ वक्त निकालकर हमारे इस आयोजन में पधारने की कृपा की है. फिर वह नब्बे डिग्री घूम गया. मेरी तरफ मुखातिब होता हुआ बोला-सर, आपकी उपस्थिति मात्र से हमारे आयोजन की गरिमा में चार चांद लग गए हैं. मैंने मंच पर अपने साथ बैठे हुए शेष तीनों व्यक्तियों को निहारा. वे तीनों मेरी ही तरह विराट-खल्वाट थे. तत्काल मेरी समझ में आ गया कि मेरे आने से आयोजन में किस तरह से चार चांद लगे हैं?

खैर, जब संचालक ने वही व्यस्ततम समय में से टाइम निकालने वाला जुमला दोबारा दोहराया, मैं खीझ उठा: अबे, काहे का व्यस्ततम समय? मैं तो सलोतर खाली आदमी हूं. मेरे पास टाइम ही टाइम है. पिछले तीन महीनों में पहली बार तो मुख्य अतिथि होना नसीब हो रहा है. मैं कब से घर पर बैठा हुआ कुढ़ रहा था कि कोई याद ही नहीं करता. नामाकूल, तू कोई और बात कर. फालतू में मेरे कटे पर बारम्बार नमक छिड़के पड़ा है.

लेकिन संचालक अपनी रौ में था. मुझसे अधिक से किंचित ज्यादा ही प्रभावित दिखलाई दे रहा था. उसने मेरे पक्ष में मोहक वातावरण क्रिएट कर दिया था. मालाएं पहनाने का दौर चला. सर्वप्रथम और सर्वाधिक मालाएं मुझे ही पहनाईं गईं. यहां तक कि सरस्वती के चित्र तक पर मेरे बाद माल्यार्पण हुआ. वह भी एक मात्र माला से मेरे ही हाथों सम्पन्न कराया गया.

मैंने भी उस मौका-माहौल का भरपूर लाभ उठाया. चतुर व्यक्ति वही होता है, जो मौके की भैंस को कायदे से दुह ले. मेरी संतुष्टि की बाल्टी प्रशंसा के दूध से लबालब थी. मैं रिक्शे वाला असम्मानकारी प्रसंग भूलकर व्यस्ततम समय की ऐसी-तैसी करता हुआ आधा घंटा  के बजाय पूरे पौने दो घंटे माइक पर डटा रहा. मुंह की टोंटी एक बार खोल दी तो खोल दी. अपनी ज्ञान की टंकी खाली करके ही माना. प्रतिदान में श्रोताओं की तालियां बटोरीं, जिनका निहितार्थ था कि अबे, अब तो चुप हो जा. आज मार ही डालेगा क्या? मेरे भाषण के बीच में से लगभग आधे लोग पलायन कर गए.

फिर भी आयोजकों के चेहरों पर खुशी थी. उन्हें कम लोगों को चाय-नाश्ता कराना पड़ा. वैसे व्यवस्था भी कम की ही थी. इस तरह मेरे भव्य भाषण ने आयोजकों की लाज रख ली. सबने मेरे भाषण की क्वांटिटी की भूरि-भूरि प्रशंसा की. वे बोले-अब से आप हमारे परमानेंट मुख्य अतिथि हुए. अगली बार हम आप को लाने के लिए एसी कार भेजना नहीं भूलेंगे.

सूर्यकुमार पांडेय
लेखक


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