राज्यपाल न हों पक्षपाती
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यपालों को राज्य सरकारों के लिए सच्चे मार्गदर्शक और दार्शनिक के रूप में कार्य करना चाहिए।
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मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में पांच न्यायाधीशों वाली राष्ट्रपति संदर्भ पीठ द्वारा केरल सरकार से सहमति व्यक्त की गई कि दोनों संवैधानिक प्राधिकारियों के बीच कार्य संबंध सहयोगात्मक होने चाहिए। केरल ने अदालत को बताया कि राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत आठ विधेयक सात से तेईस महानों तक लंबित रहे। दस दिन तक दलीलें सुनने के बाद शीर्ष अदालत ने अपना फैसला बहरहाल सुरक्षित रख लिया।
केंद्र की तरफ से जवाब में कहा गया कि अनुच्छेद 200 के प्रावधान एक के तहत लौटाए गए विधेयक के साथ राज्यपाल का संदेश पुनर्विचार के दायरे को तय करेगा जिस पर मूल विधेयक संख्या अंकित होगी। आरोप है कि वे बगैर संदेश के इसे अंतहीन तौर पर रोके रहते हैं। बेशक, राज्यपाल को संवैधानिकता की जांच करने का अधिकार है, मगर अधिनियम बन जाने के बाद भी यह न्यायिक समीक्षा के लिए खुला होगा। राज्यपाल अक्सर केंद्र सरकार के इशारे पर काम करते हैं।
इन आरोपों-प्रत्यारोपों पर लगाम कसना टेढ़ी खीर है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुमरू द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत अदालत से मांगी गई राय के बाद यह बहस तेज हो गई। मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट कहा कि न्यायिक सक्रियता को न्यायिक आतंकवाद में नहीं बदलना चाहिए। यदि लोकतंत्र का एक पक्ष कर्त्तव्य निर्वहन करने में विफल रहता है तो संविधान का संरक्षक न्यायालय शक्तिहीन होकर निष्क्रिय नहीं रह सकता।
कहना गलत नहीं कि राज्यपाल के काम पर शीर्ष अदालत का परमादेश जारी करना उचित नहीं ठहराया जा सकता। मगर विपक्षी दलों की सरकारों की असहमतियों की सुनवाई की अनदेखी भी न्यायोचित नहीं है। राज्यपाल विधानमंडल का अंग है, जिनकी सहमति विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है। कानून बनाने में राज्यपालों की सहमति महत्त्वपूर्ण चरण है पर सैद्धांतिक सहमति की आवश्यकता भी कम महत्त्व नहीं रखती।
उन परिस्थितियों को लेकर व्यवस्था देनी जरूरी है, जहां स्थिति खतरनाक हो रही हो या मध्य मार्ग स्पष्ट होता न दिख रहा हो। राज्यपालों की भूमिका रोजमर्रा के प्रावधानों में महत्त्व नहीं रखती। उन्हें नियंत्रण के साथ संतुलन बनाने के प्रति निष्पक्ष, चैतन्य और सतर्क दिखना चाहिए।
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