पशुबलि की अनुमति नहीं
बंबई उच्च न्यायालय (Mumbai High Court) ने पशु बलि प्रथा पर लगे प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि वह कहीं भी पशुओं के वध की अनुमति नहीं देगा।
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क्योंकि स्वच्छता बनाए रखना जरूरी है। अदालत ने महाराष्ट्र सरकार से भी मामले पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा। हजरत पीर मलिक रेहान मीरा साहेब दरगाह ट्रस्ट की तरफ से दायर याचिका में मुंबई के पुरातत्व व संग्रहालय द्वारा जारी निर्देश को चुनौती दी गई है जिसके तहत देवताओं को बलि चढ़ाने के नाम पर पशुओं के वध पर रोक लगाई गई है।
निर्देश में 1998 में उच्च न्यायालय के आदेश का हवाला दिया गया था जिसमें सार्वजनिक स्थानों पर देवी-देवताओं को बलि चढ़ाने के नाम पर प्रतिबंध लगाया गया था। याचिका के अनुसार, दरगाह पर पशु बलि प्राचीन प्रथा है जो सार्वजनिक नहीं, बल्कि निजी स्वामित्व वाली भूमि पर होती है और बंद दरवाजों के पीछे दी जाती है।
याचिकाकर्ताओं ने इसे दक्षिणपंथी संगठनों व हिन्दू कट्टरपंथियों के प्रभाव में तथा राजनीतिक लाभ के उद्देश्य से जारी करने का दावा भी किया। धर्म व रीति-रिवाज की आड़ में दी जाने वाली बलि किसी खास समुदाय या इलाकों तक ही सीमित नहीं हैं। प्राचीनकाल से अपने समाज में ही नहीं दुनिया भर के विभिन्न समुदायों में बलि प्रथा जारी है। मानवतावादी व पशुप्रेमी वक्त के साथ इसका विरोध करते हैं। मासूम जीव की हत्या को किसी भी नजरिए से जायज तो नहीं ठहराया जा सकता।
सरसरी तौर पर देखें तो सत्ता पक्ष या अन्य समुदाय पर बदनीयती का आरोप लगा कर याचिकाकर्ताओं ने मामले को जबरन तूल देने का प्रयास जरूर किया है। क्योंकि अदालत की पाबंदी के दायरे में सभी समुदाय हैं। अंदाजन अपने देश में हर घंटे दो पशु मारे जाते हैं। हालांकि इनमें से गिने-चुने ही बलि प्रथा का शिकार होते हैं।
दुखद है कि आज भी यदाकदा बलि की आड़ में मानव हत्याएं भी सामने आ जाती हैं जिन पर रूढ़िवादी व दकियानूसी तरह-तरह की दलीलें देते नहीं अघाते। हत्या सिर्फ हत्या है, उसे किसी नाम, रिवाज या परंपरा में ढांप कर बदला नहीं जा सकता। नियम, कानून व अदालती आदेशों को राजनीति, समुदाय या नीयत के नजरिए से देखने को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।
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