जद (यू) को कितना नुकसान
बिहार में उपेंद्र कुशवाहा ने जदयू को अलविदा कहकर राष्ट्रीय लोक जनता दल नाम से नई पार्टी बना ली है।
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वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की इस घोषणा से नाराज हैं, जिसमें कहा गया राज्य में अगला विधानसभा चुनाव उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव में लड़ा जाएगा। हालांकि जदयू सीएम नीतीश के इस बयान से मुकर गया है। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने कहा है कि 2025 तक नीतीश ही सीएम रहेंगे और 2025 में ही तय किया जाएगा कि किसके नेतृत्व में विस चुनाव लड़ा जाए। बहरहाल, कुशवाहा ने अपनी राह पकड़ ली है, और भाजपा से दोस्ती की बात से इनकार नहीं किया है। यह भी कह रहे हैं कि जननायक कपरूरी ठाकुर की विरासत को सहेजे रखने का काम करेंगे जिसे नीतीश बर्बाद कर रहे हैं।
बिहार जैसे राज्य में जहां जातीय गुणा-भाग महत्त्वपूर्ण रहता है। ऐसे में किसी नेता के साथ छोड़ जाने के कारणों को खंगालने कवायद शुरू हो जाती है, जिसकी जाति की संख्या अच्छी-खासी होती है। बिहार में कुशवाहा समाज की संख्या खासी है, जिसे राज्य में अन्य ताकतवर पिछड़े जाति समूह कुर्मी के समकक्ष ही माना जाता है। इस्तीफा देते समय कुशवाहा ने जो कहा है, उससे पता चलता है कि अपने जातीय आधार पर वे चाहते थे कि मुख्यमंत्री स्वयं के नेतृत्व में चुनाव न लड़ने की सूरत में उनके नाम पर गौर करते।
और वह ऐसा कह भी रहे हैं कि नीतीश अपने घर को मजबूत करने की बजाय दूसरे के घर में उत्तराधिकारी क्यों ढूंढ़ रहे हैं? यदि वह अति पिछड़ा समाज से किसी को चुनते तो कोई दिक्कत नहीं होती। उन्हें उपेंद्र कुशवाहा पसंद नहीं थे तो कोई बाद नहीं, लेकिन परिवार के अंदर ही किसी को ढूंढ़ते। तो यह सारा उपक्रम पार्टी में हिस्सेदारी बढ़ाने का है। राजनीति में ऐसा होना कोई नई बात नहीं है।
महत्त्वाकांक्षा बुरी बात नहीं है, और राजनीति का तो यह अविभाज्य अंग होती है, लेकिन महत्त्वाकांक्षा इतनी हावी नहीं होनी चाहिए कि फैसलों में मौकापरस्ती दिखने लगे। तमाम उदाहरण हैं कि महत्त्वाकांक्षावश फैसले करने वाले नेताओं ने अपनी विसनीयता खो दी। मतदाता ने उन्हें गंभीरता से लेना बंद कर दिया। मतदाता गौर से देख रहा होता है कि उसकी जातीय अस्मिता की दुहाई देकर किस प्रकार कोई नेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहा है। ध्यान रहना चाहिए कि जाति-धर्म से इतर नैतिक रूप से मजबूत व्यक्ति जनता में अपनी साख ज्यादा समय तक बनाए रखता है।
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