घटेगी कैदियों की भीड़
विचाराधीन कैदियों की दुर्दशा पर आखिर सर्वोच्च अदालत का ध्यान चला ही गया।
घटेगी कैदियों की भीड़ |
कैदी अगर गरीब और अनपढ़ हुए तो उनका पूरा जीवन नारकीय परिस्थितियों में कटता है। जमानत के पात्र होने या जमानत मिल जाने के बावजूद वे बेमियादी वक्त जेलों की सलाखों के पीछे काटने को विवश होते हैं। अब इनके दिन बदलने वाले हैं। अदालतों द्वारा जमानत दिए जाने पर भी ज्यादातर कैदियों के सलाखों के पीछे रहने का संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च अदालत ने निर्देश दिया है कि जमानत मिलने के बावजूद कैदी एक महीने के भीतर बॉन्ड पेश करने में विफल रहते हैं तो अदालतें लगाई गई शतरे को संशोधित करने पर विचार करें। शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा कि आरोपी/दोषी की रिहाई में देरी का एक कारण स्थानीय जमानतदार होने पर जोर देना है।
ऐसे मामलों में, अदालतें स्थानीय जमानतदार की शर्त नहीं लगा सकती हैं। यदि जमानत की तारीख से एक महीने के भीतर जमानत बांड प्रस्तुत नहीं किया जाता है, तो संबंधित अदालत इस मामले का स्वत: संज्ञान ले सकती है और विचार कर सकती है कि क्या जमानत की शतरें में संशोधन/छूट की आवश्यकता है। पीठ का विचार था कि ऐसे मामलों में जहां अंडरट्रायल या दोषी अनुरोध करता है कि वह रिहा होने के बाद जमानत बांड या जमानत दे सकता है, तो एक उपयुक्त मामले में, अदालत अभियुक्त को एक निर्दिष्ट अवधि के लिए अस्थायी जमानत देने पर विचार कर सकती है ताकि वह जमानत बांड या जमानत राशि प्रस्तुत कर सके।
यदि आरोपी को जमानत देने की तारीख से 7 दिनों की अवधि के भीतर रिहा नहीं किया जाता है, तो यह जेल अधीक्षक का कर्तव्य होगा कि वह डीएलएसए के सचिव को सूचित करे, जो कैदी के साथ बातचीत करने और उसकी रिहाई के लिए हर तरह से संभव मदद करने के लिए एक पैरा लीगल वालंटियर या जेल विजिटिंग एडवोकेट को नियुक्त कर सकता है। जेल अधीक्षक के माध्यम से कैदी को आदेश की सॉफ्ट कॉपी भी ई-मेल करनी होगी।
कैदी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए परिवीक्षा अधिकारियों या अर्ध-कानूनी स्वयंसेवकों की मदद लेने का भी निर्देश है जिसे जमानत या जमानत की शर्त में ढील के अनुरोध के साथ अदालत के समक्ष रखा जा सकता है। सर्वोच्च अदालत का यह उदार रुख हजारों विचाराधीन कैदियों को राहत देगा और जेलों की भीड़ घटाएगा।
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