पेट्रोल का स्वार्थी अर्थशास्त्र
पेट्रोल कीमतों के मामले में शतक लगा रहा है-यानी सौ रु पये लीटर के आसपास। उधर इस पर राजनीतिक बहस शुरू हो गयी है।
पेट्रोल का स्वार्थी अर्थशास्त्र |
केंद्र सरकार पर विपक्षी दलों ने निशाना साधा है, तो प्रधानमंत्री मोदी ने इस स्थिति की जिम्मेदारी पूर्ववर्ती सरकारों पर डाल दी है। पीएम मोदी ने हाल में एक संबोधन में कहा कि देश अपनी तेल जरूरतों का 85 फीसद से ज्यादा आयात करता है और गैस जरूरतों का भी 53 प्रतिशत से ज्यादा आयात करता है।
अगर वक्त रहते हालात पर ध्यान दिया गया होता, तो आज मध्यमवर्ग को पेट्रोल की बढ़ती कीमतों का भार ना उठाना पड़ता। गन्ने से निकाले गए एथानोल को पेट्रोल के साथ मिलाकर ईधन की जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। वर्तमान में 8.5 फीसद पेट्रोल एथनॉल है, इस अनुपात को 2025 तक बीस फीसद करने की योजना है। इस किस्म के लक्ष्य दूरगामी लक्ष्य हैं, जबकि उपभोक्ता की जेब अभी ही हल्की हुई जा रही है। पेट्रोल की कीमतों का अर्थशास्त्र यह है कि पेट्रोल की जो कीमत उपभोक्ता चुकाता है, उसका करीब 60 फीसदी तो सिर्फ कर ही होता है।
उपभोक्ता द्वारा दिए जाने वाले सौ रुपये में से औसतन 37 रु पये की कर वसूली केंद्र सरकार कर लेती और करीब 23 फीसद की कर वसूली राज्य सरकारें करती हैं। कर पूर्व पेट्रोल की कीमत तो 40 रु पये ही होती है। कुल मिलाकर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों का स्वार्थ यह है कि अपना खजाना भरा जाए। अगर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों अपनी जेब की चिंता छोड़ दें, तो सस्ता पेट्रोल वगैरह मिल सकता है। कोरोना के बाद केंद्र सरकार और राज्य सरकारें संसाधनों के संकट से जूझ रही हैं। ऐसे में राजनीतिक बयानबाजी चाहे जितनी हो जाए तेल के भाव नीचे आने के आसार नहीं हैं।
इसलिए अगर राजस्थान से आवाज उठती है कि पेट्रोल के भाव कम करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है, तो केंद्र सरकार के राजनीतिक प्रवक्ता सलाह दे डालते हैं कि राजस्थान की सरकार अपने करों को कम कर दे। इसलिए कुल मिलाकर पेट्रोल और संबंधित उत्पादों पर राजनीति तेज हो सकती है। पर महत्त्वपूर्ण मसला यह है कि पेट्रोल आदि के भाव अगर लगातार बढ़ते रहे, तो महंगाई का मामला गंभीर हो जाएगा, क्योंकि परिवहन लागत का तत्व तो हर वस्तु और सेवा में होता है। तो कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था को ज्यादा महंगाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
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