नतीजे की उम्मीद
किसान संगठनों और सरकार के बीच सातवें दौर की वार्ता पिछली बातचीत के मुकाबले सफल कही जा सकती है।
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आंदोलन के 35वें दिन सरकार और 40 किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से वार्ता में पराली और बिजली से जुड़ी मांगें सरकार ने मानने की हामी तो भरी मगर बाकी बिंदुओं पर लगता है अभी काफी कुछ करने की जरूरत है। जिस तरह से किसान तीनों कृषि बिलों को वापस लेने की मांग पर अड़े हैं और दूसरी तरफ सरकार भी इसे वापस नहीं लेने की बात अपरोक्ष रूप से करती रही; उससे लगता है आंदोलन हाल-फिलहाल खत्म नहीं होने वाला। ठीक है कि सरकार ने किसान संगठन के एजेंडे की चार में से दो मांगे मान लीं और आगे की वार्ता के लिए 4 जनवरी की तारीख तय की है। देखना होगा कि तीनों कानून वापस लेने और एमएसपी पर बात नहीं बनने की सूरत में सरकार और किसानों का रुख क्या होगा? हां, इस लिहाज से यह बातचीत इसलिए थोड़ी बेहतर दिखती है कि मंत्रियों ने जहां किसानों का भेजा लंगर छका तो किसान नेताओं ने भी केंद्र की चाय का स्वाद लिया।
यानी कि थोड़ी बात बनी है, किंतु अभी और ज्यादा की गुंजाइश बनानी होगी। सिर्फ इससे काम नहीं चलने वाला। जब तक दोनों पक्ष अपने फैसलों में संतुष्ट नहीं दिखेंगे, तब तक न केवल गतिरोध बना रहेगा बल्कि अंदर-अंदर गुस्सा तेज होता जाएगा। चुनांचे, दोनों पक्षों को आने वाले नूतन वर्ष में अपनी जिद और अहंकार को एक तरफ रखकर आगे की वार्ता का रास्ता सुझाना होगा। बुधवार को पांच घंटे चली बैठक में हालांकि सरकार पराली जलाने को लेकर दंडात्मक कार्रवाई रोकने और विद्युत संशोधन अधिनियम की वापसी पर सहमति जताई मगर सरकार की असली चुनौती अगली बैठक में होने वाली है। किसानों का साफ तौर पर कहना है कि 4 जनवरी को एमएसपी गारंटी और तीनों नये खेती कानूनों पर बात होगी।
सरकार को भी बार-बार बैठक बुलाने के बजाय जल्द अपनी मंशा का इजहार करना चाहिए। इस हाड़ कंपाती ठंड में आंदोलनरत किसानों को राहत सिर्फ इस कानून को वापस लेने या इसमें तब्दीली करने से नहीं बल्कि जल्द समाधान निकलने से भी होगी। अगर सरकार ऐसा करेगी तो निश्चित तौर पर उन किसानों का भरोसा जीतेगी, जो सरकार के प्रति काफी उत्तेजित और आक्रोशित हैं। जहां तक बात समिति बनाने की है तो यह उपाय भी मसले को टालने की कोशिश दिखती है, जबकि अब मुकम्मल तौर पर हल निकालने का वक्त है।
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