कानून का राज जरूरी
पुलिस मुठभेड़ में मारे गए विकास दुबे के मामले में सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की तीखी टिप्पणी के गहरे निहितार्थ हैं।
कानून का राज जरूरी |
बिना लाग-लपेट के जिस तरह अदालत ने पूरे मामले में उत्तर प्रदेश सरकार की खिंचाई की है, कानून के जानकार और मानवाधिकार के पैरोकार भी ऐसी ही दलील दे रहे थे। सर्वोच्च अदालत ने कानून के दायरे में रहकर सरकार को काम करने की नसीहत दे डाली। कोर्ट ने साफ कहा कि कानून का शासन बनाए रखना राज्य की जिम्मेदारी होती है।
किसी भी अपराधी को गिरफ्तार करना, फिर उस मामले में सुनवाई और अंत में सजा दिलाना ही कानून सम्मत काम है। विकास दुबे के मामले में ऐसा नहीं दिखता है। खुद ही न्याय देने का तौर-तरीका अदालत को नागवार गुजरा। वैसे विकास दुबे के पुलिस मुठभेड़ में मार गिराने के बाद से ही सोशल मीडिया और कई अन्य मंचों पर यह पढ़ने और देखने को मिल रहा था कि अदालत के होने का क्या मतलब है, जब फैसला ऑनस्पॉट हो रहा है। यह तथ्य वाकई महत्त्वपूर्ण है। कानून का सम्मान हर सरकारी तंत्र को करना चाहिए।
अगर इसी तरह कोई सरकार अपराधियों को मुठभेड़ में मार गिराने को जायज ठहराने लगेगी तो देश और समाज में अराजक हालत बन जाएंगे। बात इसलिए भी सही है क्योंकि दुबे जैसे गैंगेस्टर के खिलाफ 60 से ज्यादा गंभीर मामला लंबित होने के बावजूद उसे जमानत मिलना, निश्चित तौर पर कानून और शासन का मखौल है। इसी बात से अदालत ज्यादा संजीदा दिखी। मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे का यह कहना कि एक व्यक्ति जिसे सलाखों के पीछे होना चाहिए था, वह जमानत पर बाहर है, संस्थागत विफलता है। नि:संदेह अदालत का इस मामले पर सख्त रुख अपनाना कानून के लिहाज से उचित है। साथ ही यह पुलिस के मनोबल को भी मजबूती से बनाए रखेगा।
यह तो जगजाहिर है कि अधिकांश मुठभेड़ फर्जी होते हैं। इसलिए सरकार की यह दलील की जांच के आदेश से पुलिस का मनोबल कमजोर होगा, अनुचित है। न्याय होना और दिखना दोनों जरूरी है। फिलहाल अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार के सारे आदेश तलब किए हैं। साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित जांच कमेटी को पुनर्गठित करने के आदेश भी दिए हैं। कुल मिलाकर मुख्य न्यायाधीश का पूरा जोर न्याय की पूरी प्रक्रिया के पालन करने पर रहा। निश्चित तौर पर आगे चलकर सरकारें अपने रवैये में पारदर्शिता लाएगी और नियमत: किसी अपराधी को उसके असली जगह भेजेगी।
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