कानून-व्यवस्था पर सवाल
उत्तर प्रदेश के कानपुर क्षेत्र में जो घटा उसने एक ओर तो प्रदेश की कानून-व्यवस्था को पूरी तरह नंगा कर दिया और दूसरी ओर यह भी पूरी तरह सामने ला दिया कि दुर्दात अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे एक खासे बड़े पुलिसबल पर नियोजित तरीके से हमला कर सकते हैं और बड़े अधिकारियों सहित कई पुलिसकर्मियों को एक साथ मौत के घाट उतार सकते हैं।
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यह तो अब एक स्थापित सत्य है कि किसी भी ऐसे गिरोहबंद अपराधी की शक्ति उसके सत्ता के साथ संबंधों तथा पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ उनकी सांठ-गांठ से आती है।
जब तक सत्ताधारियों का संरक्षण न हो और पुलिस तथा प्रशासन के बीच उनकी खासी पैठ न हो यानी उसे ताकतवरों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संरक्षण न प्राप्त हो, तब तक वह अपने अपराधकर्म को न तो संगठित व्यवसाय में बदल सकता है और न आगे बढ़ा सकता है। विकास दुबे के मामले में भी भले ही ऐसे संबंधों की एक निश्चित कहानी सामने न आई हो लेकिन जो छिटपुट कहानियां निकलकर आई हैं, वे बताती हैं कि विकास दुबे हर शासनकाल में सत्ता तंत्र के अंदर अपनी पकड़ बनाए रहा और अपने विरुद्ध 60 गंभीर आपराधिक मामले होने के बावजूद उन्मुक्त विचरण करता रहा।
आगे जैसा कि ऐसे मामलों में प्राय: होता है पुलिस बदले की भावना से काम करेगी और इस अपराधी को अदालत के किसी प्रक्रिया के सामने रखने से पहले ही निबटा देगी। बहरहाल कानपुर में कुख्यात अपराधी विकास दुबे ने पुलिस दल पर जिस तरह घात लगाकर हमला किया वह नागरिक अपराधों की दुनिया में एकदम अनोखा है। इस तरह के हमले नक्सलवादी समूह तो पुलिसबलों पर करते रहे हैं, लेकिन नागरिक जीवन में सक्रिय किसी अपराधी या माफिया ने इस तरह से पुलिस पर हमला किया हो, ऐसा स्मरण नहीं आता, क्योंकि सामान्य अपराधी अपनी जान बचाने के लिए ही पुलिस पर हमला करते हैं।
निश्चित तौर पर देश और समाज को यह जानने की उत्सुकता रहेगी कि इस अपराधी ने ऐसा कदम क्यों उठाया? क्या विकास दुबे में इस हत्याकांड के बाद भी बच निकलने का आत्मविश्वास मौजूद था या उसने अपने किसी मूर्खतापूर्ण अति उत्साह में आकर ऐसा किया। उम्मीद की जाती है कि आने वाले दिनों में इस रहस्य से परदा उठेगा। ये सवाल इसलिए भी महत्त्व रखता है क्योंकि इन सवालों के जवाब से ही भविष्य में पुलिस और अपराधियों के समीकरण तय होंगे।
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