दिल्ली सरकार की असहायता
दिल्ली सरकार ने फैसला लिया है कि कोरोना वायरस महामारी के रहने तक दिल्ली सरकार के अस्पतालों और यहां के निजी अस्पतालों में राजधानी में रह रहे लोग ही इलाज करा सकेंगे, लेकिन केंद्र सरकार के अस्पतालों जैसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), सफदरजंग और राममनोहर लोहिया अस्पताल में पहले की ही तरह दूसरे राज्यों के लोगों का इलाज होता रहेगा।
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नैतिक और विधिक दृष्टि से दिल्ली सरकार के इस फैसले को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता।
दिल्ली एक राज्य (पूर्ण दरजा प्राप्त नहीं) होने के साथ-साथ देश की राजधानी भी है। यहां देश के हर प्रांत के लोग रहते हैं। अन्य राज्यों के छात्र भी यहां पढ़ाई करने के लिए आते हैं। जाहिर है इसी व्यापक सोच के साथ राजधानी दिल्ली का निर्माण भी किया गया है। असलियत यह भी है कि दिल्ली के बारे में यह माना जाता है कि यहां की स्वास्थ्य सेवाएं अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा बेहतर हैं। यही वजह है कि दूसरे राज्यों के रहने वाले लोग भी असाध्य बीमारियों का इलाज कराने दिल्ली आते हैं।
अस्पताल चाहे केंद्र सरकार की हो या राज्य सरकार की हो या निजी हों; मरीजों को तो बेहतर इलाज चाहिए। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल आदि पड़ोसी देशों के मरीज भी बेहतर इलाज की चाहत में दिल्ली आते हैं। इसीलिए दिल्ली के अस्पतालों को सिर्फ दिल्ली वालों के लिए आरक्षित रखने के दिल्ली सरकार के फैसले की कई राजनीतिक दलों ने आलोचना की है। दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता और पूर्व अध्यक्ष मनोज तिवारी ने केजरीवाल सरकार के इस फैसले का कड़ा विरोध किया है। लेकिन असलियत यह है कि दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह चरमरा गई हैं।
मरीजों की भारी संख्या का दबाव नहीं झेल पा रहीं हैं। आमतौर पर यह शिकायत आ रही है कि मरीज फुटबॉल की तरह एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल का चक्कर काट रहे हैं। बहुत से मरीजों को अस्पतालों में दाखिला नहीं मिल पा रहा है, जिसके कारण उनका इलाज नहीं हो पा रहा है। बेशक केजरीवाल सरकार के इस फैसले की निंदा होनी चाहिए लेकिन उसकी मजबूरी भी समझनी होगी। दिल्ली के पड़ोसी राज्यों को भी अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना होगा। उन्हें अपने-अपने मरीजों का इलाज अपने ही राज्यों में कराने का प्रबंध करना होगा। कोरोना वायरस जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, उससे आगे जो डरावनी स्थिति दिखाई दे रही इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।
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