सीएए वैध
केंद्र की ओर से नागरिकता संशोधन कानून पर सर्वोच्च न्यायालय में दायर शपथपत्र में उन सारे प्रश्नों का जवाब देने की कोशिश की गई है जो विरोधियों ने उठाया है।
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जाहिर है, अब इस पर बहस होगी एवं उसके आधार पर न्यायालय अपना आदेश देगा। संभव है आगे सर्वोच्च न्यायालय से कोई स्पष्टीकरण मांगने पर केंद्र पूरक शपथ पत्र भी दाखिल करे।
129 पृष्ठों के इस शपथ पत्र में कुछ बातें प्रमुख हैं। मसलन, क्या यह कानून मौलिक अधिकारों का हनन करता है? इसका उत्तर है कि नहीं यह कानून संविधान में प्रदत्त किसी भी मौलिक अधिकार का हनन नहीं करता। दूसरा प्रश्न था कि क्या इसमें संवैधानिक नैतिकता का उल्लंधन हुआ है? इसका जवाब भी न में है। कहा गया है कि इसका सवाल ही नहीं है। तीसरे, इसमें कार्यपालिका को मानमाने और अनियंत्रित अधिकार का प्रश्न भी उठा है।
इसके जवाब में कहा गया है कि यह कहीं से मनमाने और अनियंत्रित अधिकार प्रदान नहीं करता, क्योंकि पाकिस्तान बंग्लादेश और अफगानिस्तान में उत्पीड़न का शिकार हुए अल्पसंख्यकों को इस कानून के अंतर्गत विर्निदिष्ट तरीके से ही नागरिकता प्रदान की जाएगी। ऐसे सारे प्रश्नों का जवाब इसमें है। धर्म के आधार पर कानून बनाने के सवाल का जवाब भी है। सर्वोच्च न्यायालय नागरिकता संशोधन कानून के विरु द्ध दायर 160 से ज्यादा याचिकाओं की सुनवाई कर रहा है। ध्यान रखने की बात है कि उसने सुनवाई को तो स्वीकार किया लेकिन कानून को लागू करने पर स्थगनादेश देने से इनकार कर दिया था।
इस तरह यह कानून लागू हो चुका है। इसकी संवैधानिकता का परीक्षण न्यायालय करेगा। वस्तुत: इस कानून पर भारत की राजनीतिक हावी हो गई है। तीन देशों से धार्मिंक रूप से उत्पीड़ित होकर आए वहां के अल्पसंख्यकों के प्रति सबकी सहानुभूति थी। ज्यादातर राजनीतिक दल चाहते थे कि इनको नागरिकता मिले। संसद में भी इसकी मांग की गई थी।
यह भारत की जिम्मेवारी थी कि विभाजन के बाद वहां कभी अच्छा समय आने की उम्मीद में रह गए धार्मिंक रूप से अल्पसंख्यकों को न्याय प्रदान करे। आखिर वे विभाजन से पहले हमारे देश के नागरिक थे और इस नाते उनका भारत पर अधिकार है और भारत का यह दायित्व भी है। किंतु भारत में वोट बैंक की राजनीति ने इसके खिलाफ एक समुदाय को खड़ा कर दिया। तो अब शीर्ष न्यायालय पर ही सारा दारोमदार है। देखते हैं केंद्र के जवाब पर न्यायालय क्या रु ख अपनाता है?
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