सराहनीय फैसला
सर्वोच्च अदालत ने सेना के बाद नौसेना में महिला अफसरों के लिए स्थायी कमीशन को मंजूरी देकर आधी आबादी को फिर खुश होने का मौका दिया।
![]() सराहनीय फैसला |
पीठ ने केंद्र सरकार की उस दलील को खारिज कर दिया जिसमें महिला अधिकारियों को शारीरिक क्षमताओं को स्थायी कमीशन देने में बाधा बताया गया था। इससे पहले पिछले महीने ही शीर्ष अदालत ने सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का अभूतपूर्व निर्णय सुनाया था। उस वक्त भी केंद्र के तकरे से अदालत नाखुश थी।
अदालत ने तब कहा था कि लैंगिक भेदभाव से महिलाओं के मनोबल में कमी आएगी और यह कहीं से भी अच्छी बात नहीं है। स्वाभाविक तौर पर जब बाकी क्षेत्रों में महिलाएं बेहतरी की ओर अग्रसर हैं तो फिर सेना में दक्षता और ताकत की कमी की थोथी दलील कहीं से भी न्यायोचित नहीं कही जा सकती है। वैसे भी विश्व के कई देशों मसलन अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, इस्रइल आदि में महिलाएं फौज में बड़ी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर रहीं हैं। इस फैसले से जंगी पोतों पर महिला अफसरों की तैनाती का रास्ता साफ हो गया है।
निश्चित तौर पर इस फैसले से यह उम्मीद बलवती हुई है कि महिलाओं के लिए नये अवसर खुलेंगे साथ ही पुरुषवादी मानसिकता में तब्दीली आएगी। आखिर लैंगिक भेदभाव का शिकार महिलाएं कब तलक होती रहेंगी? तकलीफ इस बात की है कि ऐसे फैसलों में सरकार ही रोड़ा बनती है। जबकि अगर सरकार के स्तर पर महिलाओं को बराबरी का हक दिया जाता तो बात ही कुछ और होती। राजनीति हो या कोई और क्षेत्र; महिलाओं ने बेशक बहुत लंबा रास्ता तय किया है। देश की महिलाओं ने कई मौकों पर यह साबित भी कर दिखाया है।
शुक्र है, अदालती हस्तक्षेप से न्याय की उम्मीद बनी हुई है। सत्ता में बैठे लोगों को भी यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि बिला-वजह महिलाओं की प्रगति के रास्तों को अपनी संकीर्ण सोच की वजह से बाधित करने में निहायत बेवकूफाना सोच नहीं है। काबिलियत को मौका मुहैया कराना ही किसी तंत्र का मुख्य ध्येय होना चाहिए। भेदभाव की भावना से ऊपर उठकर लिए गए फैसले ही लंबे वक्त तक स्मृति में बने रहते हैं। एक महीने के दौरान दूसरी बार अदालत के ऐतिहासिक फैसले ने आधी आबादी के लिए वाकई बहुत बड़ी लकीर खींची है।
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