मध्य प्रदेश का हाल
मध्य प्रदेश का राजनीतिक घटनाक्रम फिर एक बार असुंदर दृश्य उत्पन्न कर रहा है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय बीच में आ गया है इसलिए सामान्य निष्कर्ष यही है कि अब सब कुछ उसी के आदेश पर निर्भर करेगा।
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राज्यपाल लालजी टंडन द्वारा सदन में शक्ति परीक्षण का आदेश न मानने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित 10 विधायकों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था, लेकिन कांग्रेस की अनुपस्थिति के कारण सुनवाई एक दिन टल गई। मध्य प्रदेश में कांग्रेस से विद्रोह कर 22 विधायकों के इस्तीफा देने के बाद जिस तरह की स्थिति पैदा हो गई है, उसमें सर्वमान्य संवैधानिक रास्ता यही है कि विधानसभा के अंदर बहुमत का फैसला हो जाए।
राज्यपाल ने अपने संवैधानिक दायित्व का पालन किया। अगर उनके दो पत्रों के बावजूद विधानसभा अध्यक्ष इसके लिए तैयार नहीं है तो फिर क्या होना चाहिए? विधानसभा अध्यक्ष ने सत्र को 26 मार्च तक स्थगित करने का फैसला कोरोना वायरस के आधार पर किया है। जाहिर है, यह फैसल सवालों के घेरे में रहेगा। अध्यक्ष का दायित्व था कि वो विधानसभा परिसर को सैनिटाइज कराएं एवं संवैधानिक प्रावधानों तथा परंपराओं का ध्यान रखते हुए फैसला करें। राज्यपाल का निर्देश भी उनके पास था।
यह बात सही है कि जिन 16 विधायकों ने बेंगलुरू से त्यागपत्र भेजा है उसे स्वीकार करने के पहले उन्हें संतुष्ट होना चाहिए कि ऐसा करने के पीछे कोई दबाव तो नहीं है। इसके लिए उन्होंने विधायकों को उपस्थित होने के लिए नोटिस जारी किया था। लेकिन भोपाल हवाई अड्डे पर जिस तरह की स्थिति पैदा हो गई, उसमें विधायकों को वापस जाना पड़ा। प्रश्न है कि क्या इसके आधार पर शक्ति परीक्षण को अनिश्चितकाल तक टाला जा सकता है?
संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं और न ही परंपरा ही ऐसी है। विधायकों को कांग्रेस से त्यागपत्र देना नैतिक है या अनैतिक इस पर तो बहस हो सकती है, पर विधानसभा के अंकगणित में कमलनाथ सरकार बहुमत खो चुकी है इसमें किसी को संदेह नहीं। समय खींचने का उद्देश्य एक ही हो सकता है कि त्यागपत्र देने वाले विधायकों को मनाने की कोशिश की जाए। वो कोशिश भी अभी तक विफल है। विधायकों ने पुन: पत्र लिखकर अध्यक्ष को त्यागपत्र स्वीकार करने का निवेदन किया है। साथ ही बंधक बनाने के आरोपों का भी खंडन किया है। वस्तुत: इस मामले को लंबा खींचना किसी दृष्टि से उचित नहीं है।
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