अमेरिका-तालिबान समझौता
अफगानिस्तान में आखिर दो दशक बाद अमेरिकी और नाटो फौज की वापसी की राह खुली।
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उम्मीद यही की जानी चाहिए कि पूरी दुनिया और खासकर एशिया और हमारे क्षेत्र में शांति और स्थायित्व का नया दौर शुरू होगा। उम्मीद भी है कि इससे इस पूरे क्षेत्र में आतंकी गतिविधियों में भी विराम लगेगा। भारत ने इसका स्वागत किया है और कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और अफगानिस्तान इस्लामी अमीरात यानी तालिबान के बीच समझौते के वक्त हमारे राजदूत पी. कुमारन अमेरिकी विदेश मंत्री माइकल आर. पोंपियो के साथ मौजूद थे। अलबत्ता समझौते के बाद तालिबान के सियासी प्रमुख मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने पाकिस्तान का खासकर और ईरान, चीन तथा रूस का इस अमन प्रक्रिया में मदद के लिए शुक्रिया अदा किया मगर भारत का कहीं जिक्र तक नहीं किया। हालांकि भारत के मौजूदा अफगान सरकार के साथ रिश्ते अच्छे हैं, लेकिन आने वाले दिनों में अमेरिका-तालिबान समझौते के नतीजे किस रूप में खुलते हैं, यह देखना होगा। फिलहाल तो इससे पाकिस्तान और चीन को ज्यादा शह मिलती दिख रही है।
अलबत्ता इस समझौते में पाकिस्तान तालिबान का कोई जिक्र नहीं है, न ही लश्करे तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद का। लेकिन अफगानी तालिबान के प्रमुख मुल्ला बरादर के बयान से जाहिर होता है कि पाकिस्तान के हुक्मरानों को ज्यादा तरजीह मिलेगी। फिर, पाकिस्तान में चीन के बढ़ते असर से यह भी संभव है कि अफगानिस्तान में भी चीन का असर बढ़े। यानी यह समझौता भारत के हित में उतना नहीं लगता। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे के दौरान साझा बयान में आतंकवाद के खिलाफ प्रतिबद्धता की बात तो थी, लेकिन बाद में प्रेस कॉन्फ्रेंस में ट्रंप ने यह भी कहा कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान उनके अच्छे दोस्त हैं और वे सकारात्मक कदम उठाएंगे।
क्या इसका यह मतलब है कि अमेरिका, भारत और पाकिस्तान दोनों को अपने जद में रखना चाहता है? अफगान समझौते से तो यही लगता है। यह तो कहा ही जा सकता है कि अफगान समझौता उस कदर भारत के हित में नहीं है, जैसी उम्मीद की जा रही थी। अफगानिस्तान में अगर भारत की भूमिका बढ़ती तो निश्चित रूप से इसका पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्तों पर भी असर पड़ता। लेकिन अब शायद मामला वैसा न रहे। हालांकि कूटनीति और भू-राजनैतिक परिस्थितियों के बारे में कुछ भी तयशुदा नहीं कहा जा सकता।
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