प्रगतिशील फैसला
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने गर्भपात कानून में महत्त्वपूर्ण बदलाव को मंजूरी देकर सही मायने में प्रगतिशील कदम उठाया है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
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इस बदलाव के लिए सरकार ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधन) विधेयक को मंजूरी दी है, जिसके तहत विशेष हालात से गुजरने वाली महिलाओं के गर्भपात कराने की समयसीमा को 20 से बढ़ाकर 24 सप्ताह करने का प्रस्ताव है। इस विधेयक को संसद के आगामी बजट सत्र में पेश किया जाएगा। इस विधेयक के पारित होने के बाद दुष्कर्म पीड़िता, पारिवारिक यौनाचार से पीड़ित या दिव्यांग और नाबालिग पीड़िताओं के छह महीने के गर्भ को भी गिराने का वैधानिक आधार होगा। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2006 में ही गर्भपात की समयसीमा बढ़ाने की पहल की थी। उस समय विभिन्न राज्य सरकारों, डॉक्टरों और गैर सरकारी संगठनों से भी विचार-विमर्श किया गया था। इन सबसे बातचीत के बाद 2014 में इसका मसौदा तैयार किया गया था। लेकिन सरकार की सुस्ती या लालफीताशाही के चलते महिलाओं के कानूनी अधिकारों को विस्तार देने के रूप में माने जाने वाला यह महत्त्वपूर्ण विधेयक बरसों तक लटका रहा।
यह विधेयक निश्चित रूप से अपनी प्रकृति में प्रगतिशील है। इससे इस बहस की गुंजाइश प्राय: खत्म हो गई है कि दक्षिणपंथी सरकारों से प्रगतिशील और सुधारवादी फैसलों की उम्मीदें नहीं की जानी चाहिए। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर यह दावा कर रहे हैं कि 20 सप्ताह में गर्भपात कराने पर मां की जान जाने के कई मामले सामने आए हैं। अब 24 सप्ताह यानी छह महीने में भी गर्भपात कराना सुरक्षित होने की बात की जा रही है। ऐसा हो सकता है कि विशेषज्ञों की भी राय इसी तरह की हो। इस तथ्य के बावजूद यह कैसे मान लिया जाए कि 6 महीने में गर्भपात कराना जोखिम भरा नहीं होगा। इस प्रक्रिया को अभी परीक्षण के दौर से गुजरना होगा इसलिए अभी यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि 24 सप्ताह के गर्भपात के मामले सौ फीसद सफल ही हो पाएंगे। फिर भी इस कानून के बनने से दुष्कर्म पीड़िताओं और नाबालिगों सहित ऐसी महिलाओं को मदद मिलेगी जिनके गर्भ में डायफ्रैगमैटिक हर्निया और माइक्रोसैफली आदि गंभीर रोगों से पीड़ित बच्चे पल रहे हों। गर्भ में ऐसे रोगग्रस्त नवजात की पहचान 20 हफ्तों के बाद ही चल पाता है। जाहिर है इस कानून से विशेष हालात से गुजरने वाली महिलाओं को राहत मिलेगी और उनके अधिकारों का विस्तार भी होगा।
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