रावत का स्पष्टीकरण
यह अच्छा हुआ कि देश की तीनों सेनाओं की संयुक्त कमांड के पहले ‘चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ’ (सीडीएस) का कामकाज संभालने के साथ ही जनरल बिपिन रावत ने अपने विवादास्पद बयान पर स्पष्टीकरण देते हुए पूरे मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की है।
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उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून (एनएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के विरोध में कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और कुछ शहरों में हिंसक विरोध प्रदर्शनों के संदर्भ में नेतृत्व के गुण-दोषों की समीक्षा की थी। इस पर विपक्षी दलों ने सवाल उठाते हुए सैन्य अनुशासन की मर्यादा का उल्लंघन करने के आरोप लगाए थे।
आम तौर पर भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में परंपरा रही है कि देश में सरकार विरोधी किसी भी राजनीतिक या गैर-राजनीतिक आंदोलनों और प्रदर्शनों से सेना अपनी दूरी बनाए रखती है। वर्तमान आंदोलन की प्रकृति कुछ शहरों और कस्बों में स्वत:स्फूर्त थी तो कुछेक में राजनीति प्रेरित भी रही है। जाहिर है कि इस स्थिति में जनरल रावत का बयान नागरिक समाज के मन में कहीं न कहीं यह आशंका पैदा करने वाला रहा है कि सेना का राजनीतिकरण हो रहा है।
हालांकि ब्रिटिश उपनिवेशवादी सत्ता के विरुद्ध भारत का स्वतंत्रता संघर्ष करीब एक शताब्दी तक चला और इस क्रम में लोकतंत्र का शनै-शनै विकास हुआ। इसलिए एशिया और अफ्रीका के अन्य देशों की तुलना में भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की विरासत बहुत मजबूत रही है। फिर भी संविधान निर्माताओं और आजादी के बाद के राजनीतिक नेतृत्व ने राजनीतिक नेतृत्व और सैन्य नेतृत्व के क्षेत्राधिकार की बुनियाद अलग-अलग रखी। भारतीय सेना हमेशा मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व के निर्देशों का पालन करती है।
अगर सेना राजनीतिक नेतृत्व के कामकाज में दखल देना शुरू कर दे तो भारत को पाकिस्तान बनने में देर नहीं लगेगी। औपनिवेशिक सत्ता की गुलामी से आजाद होकर लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाने वाले एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों में भी यही हुआ था। इसलिए भारत का नागर समाज सेना की किसी भी सक्रियता से आशंकित हो जाता है। अब जनरल रावत ने यह कहकर समझदारी का परिचय दिया दिया है कि सेनाएं राजनीति से दूर रहकर अपना काम करती हैं, और हम मौजूदा सरकार के निर्देशों के अनुसार काम करते हैं। हम आशा करते हैं कि जनरल बिपिन रावत के स्पष्टीकरण के बाद यह विवाद यहीं समाप्त हो जाएगा।
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