बाहर निकले चिदंबरम
पूर्व वित्त मंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम 106 दिनों बाद जमानत पर बाहर आए तो कांग्रेस द्वारा इस पर प्रसन्नता व्यक्त करना या इसे सरकार के विरु द्ध विजय के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश अस्वाभाविक नहीं है।
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हालांकि यह जमानत है आरोपों से मुक्ति नहीं। जमानत में भी सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि वे मुकदमे के संदर्भ में अपने या सहअभियुक्तों के बारे में कोई बयान या साक्षात्कार नहीं देंगे। साथ ही उनका पासपोर्ट सीबीआई के पास जब्त रहने और विदेश जाने के लिए निचली न्यायालय की अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया है। इस तरह देखा जाए तो सशर्त जमानत है। सर्वोच्च अदालत द्वारा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के जमानत न देने के फैसले को निरस्त करना कानूनी तकनीकी मामला है।
मसलन, ईडी ने न्यायालय में दलील दिया था कि धनशोधन के मामले में एक गवाह चिदंबरम का सामना करने के लिए तैयार नहीं है, तो न्यायालय ने कहा कि इसके लिए चिदंबरम को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का मूल अर्थ यही है कि जमानत का प्रावधान कानून में है और चिदंबरम पर जो आरोप हैं उनका ट्रायल के दौरान वे जवाब देंगे, लेकिन इस आधार पर उनको जेल में नहीं रखा जाना चाहिए। न्यायालय ने चिदम्बरम की उम्र और स्वास्थ्य को भी जमानत देने का आधार माना है। जेल में उनका बीमार पड़ना तथा इलाज के कागजात भी जमानत का एक कारण बना है।
जब चिदंबरम के पक्ष में निचले न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक नामी वकीलों की बड़ी फौज खड़ी थी तो उन्हें आज न कल जमानत मिलना ही था। मगर उन पर अपने बेटे के माध्यम से घूसखोरी, दलाली, दूसरी कंपनियों को अपना हिस्सा जबरन बेचने तथा पद का दुरूपयोग करते हुए मुखौटा कंपनियां अलग-अलग रिश्तेदारों के नाम पर बनाकर गबन करने के साथ कई गंभीर आरोप हैं। कांग्रेस इसे साजिश कहे, या और कुछ आम धारणा यही है कि अगर आरोपों में दम नहीं होता तो उनके जैसे शक्तिशाली व्यक्ति का इतने दिनों तक जेल में रहना संभव नहीं होता।
हालांकि जब तक कानून आरोपों की पुष्टि के बगैर किसी को अपराधी नहीं मानता और यह चिदंबरम एवं उनके परिवार पर भी लागू होता है। किंतु पूरा मामला देखने वालों के लिए यह तर्क गले उतरना मुश्किल है कि उनके खिलाफ किसी राजनीतिक बदले की भावना से कार्रवाई हुई है।
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