क्रीमी लेयर पर याचिका
आरक्षण में क्रीमी लेयर की अवधारणा भी देश में मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था के थोड़े दिनों बाद ही आ गई।
क्रीमी लेयर पर याचिका |
ऊंची जातियों और प्रतिभा को तरजीह देने के पैरोकारों की ओर से विनाथ प्रताप सिंह की सरकार के दौरान लाई गई इस आरक्षण व्यवस्था का विरोध भी हुआ था। फिर तर्क यह आया कि ओबीसी में प्रभावी जातियां ही आरक्षण का लाभ हथिया रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी क्रीमी लेयर को आरक्षण की सुविधा से अलग रखने पर मुहर लगाई।
लेकिन इस तर्क को आगे बढ़ाकर जब अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण में क्रीमी लेयर की अवधारणा लाई गई और 2006 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने अनूसूचित जाति-जनजाति में क्रीमी लेयर वालों को प्रोन्नति में लाभ न देने का फैसला सुनाया। फिर 2018 में जरनैल सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की दूसरी बेंच ने 2006 के फैसले को सही ठहराया। मगर प्रोन्नति में आरक्षण खत्म करने पर दलितों की ओर से जोरदार विरोध हुआ। देश भर में जगह-जगह हिंसक प्रदर्शन और बंद हुए।
इससे सरकार भी हिली और अब उसने इस मामले पर विचार करने के लिए सात जजों की बड़ी बेंच बैठाने की मांग की है। दलील यह है कि क्रीमी लेयर की अवधारणा ओबीसी तक ही सीमित है क्योंकि पिछड़ी जातियों में कई स्तर हैं और कुछ जातियों की सामाजिक हैसियत अच्छी है या बढ़ी है किंतु अनुसूचित जातियों और जनजातियों में यह स्थिति नहीं है। अगर कुछ परिवार या व्यक्तियों की स्थिति सुधरी भी है तो उनकी सामाजिक हैसियत में कोई बहुत बदलाव नहीं है। दरअसल, इसे देखने के दो तरीके हो सकते हैं।
एक, क्या उनकी सामाजिक हैसियत बदली है और दूसरे उनमें आरक्षण का लाभ पाकर कितने लोगों की स्थिति सुधरी है। मोटे तौर जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके हिसाब से बहुत ही मामूली 2 प्रतिशत के आसपास यह आंकड़ा है। इसके अलावा इससे इन जातियों में यह आशंका भी है कि कहीं यह प्रक्रिया धीरे-धीरे आरक्षण खत्म करने की दिशा में न बढ़े। इसलिए भी इस पर पुनर्विचार की जरूरत महसूस होती है। वजह यह कि आरक्षण का असली मकसद समाज में सबको बराबरी की स्थिति में लाना और वंचितों की सामाजिक हैसियत बदलना है। बेशक राजनीतिक पार्टयिां वोट को ध्यान में रखकर ऐसे मामलों में भी अपनी राय करती हैं मगर इस पर विचार वास्तविक तकरे के आधार पर होना चाहिए।
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