उदासीन मतदाता
महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में कम मतदान इस मायने में थोड़ी चिंता पैदा करता है कि पिछले कई सालों से ज्यादा मतदान की प्रवृत्ति आगे बढ़ रही थी।
उदासीन मतदाता |
पिछले दो लोक सभा चुनावों में मतदान के रिकॉर्ड टूटे थे। ऐसे ही अनेक राज्यों के चुनावों में भी रिकॉर्ड मतदान हो रहा था। पांच महीने पहले ही तो लोक सभा चुनाव में लोगों ने बढ़-चढ़कर मतदान में भाग लिया था। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर, इस बार लोगों में मतदान को लेकर उदासीनता क्यों थी?
हालांकि महाराष्ट्र में तो ज्यादा कमी नहीं आई लेकिन हरियाणा में अभी तक के आंकड़ों के अनुसार पिछले विधानसभा चुनाव से 10 प्रतिशत से ज्यादा की कमी आई है। जब सत्तारूढ़ दल या गठबंधन के खिलाफ विपक्ष भी सघन संघर्ष करता है, तो दोनों ओर के मतदाताओं के बीच प्रतिस्पर्धा होती है कि हम अपना ज्यादा से ज्यादा मत डलवा लें। कारण, सघन संघर्ष में एक-एक मत का महत्त्व बढ़ जाता है। इसके विपरीत यदि मतदाताओं को यह आभास हो जाए कि चुनाव में संघर्ष नहीं है, तो फिर वे उदासीन हो जाते हैं। इस बार पूरा माहौल ऐसा ही था मानो विपक्ष ने लड़ने के पहले ही हथियार डाल दिए हों। तो यह एक बड़ा कारण है मतदान कम होने का। हालांकि इसमें खतरे भी हैं। ऐसी हालत में सत्तारूढ़ दल के मतदाता कम निकलते हैं।
2004 में अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के सत्ता में वापस न आने का एक बड़ा कारण भाजपा एवं राजग के मतदाताओं का निश्चिंत हो जाना था। वैसे, 2004 और 2019 में काफी अंतर आ गया है। सारे एक्जिट पोल महाराष्ट्र में भाजपा-शिवेसना गठबंधन तथा हरियाणा में भाजपा की जीत की भविष्यवाणी कर चुके हैं। बावजूद परिणाम के पहले हम अपनी ओर से कोई मत देना नहीं चाहते। हमारा मानना है कि मतदाताओं को मतदान के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए।
काफी संघर्ष और बलिदान के बाद हमें स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र प्राप्त हुआ है। इसका पूरा सम्मान करना चाहिए। लोकतंत्र में एक नागरिक के नाते मत से बड़ा अधिकार कुछ हो ही नहीं सकता। मतदान लोकतंत्र का मूल है। आपके मत से केवल सरकारें बनती या सत्ता से बाहर ही नहीं होतीं, सभी दलों के जनाधार का भी वास्तविक आकलन होता है। उम्मीदवारों की जन हैसियत का पता चलता है। इसका असर आने वाले चुनावों पर होता है। इसलिए कौन जीतेगा या हारेगा, इससे परे होकर आप जिसका भी समर्थन कर रहे हों, उसके लिए मतदान अवश्य कीजिए।
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