फीस की फांस

Last Updated 13 Aug 2019 12:21:07 AM IST

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) का 10वीं व 12वीं बोर्ड परीश शुल्क में भारी बढ़ोतरी का निर्णय चौंकाने वाला है। सीबीएसई ने हाल ही में इस संबंध में एक अधिसूचना जारी की है।


फीस की फांस

अधिसूचना के मुताबिक अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्ग के छात्रों को अब जहां 24 गुना अधिक बोर्ड परीक्षा शुल्क देना होगा, वहीं सामान्य वर्ग के छात्रों को भी पहले के मुकाबले दो गुना शुल्क अदा करना होगा।

कायदे से सीबीएसई को अभिभावकों को विश्वास में लेकर ऐसे फैसले पर अंतिम निर्णय लेना चाहिए था। मगर उसने अपनी दिक्कतों का हवाला देकर फीस बढ़ोतरी को जायज ठहराने की दलील पेश की है। ठीक है सीबीएसई के सामने खर्च जुटाने के लिए दुरूह स्थितियां थीं। मगर इसकी भरपाई के लिए फीस में भारी-भरकम बढ़ोतरी की जरूरत नहीं थी। स्वाभाविक तौर पर 10 से 20 फीसद की बढ़ोतरी तो समझ में आती है किंतु एकदम से कई-कई गुना की वृद्धि समझ से परे है। सवाल यह भी कि क्या महंगाई सौ फीसद बढ़ गई थी, जो ऐसा कठोर फैसला लेने के लिए बोर्ड को मजबूर होना पड़ा?

सर्वविदित है कि एक कल्याणकारी राज्य की भावना इसी में है कि सरकार वंचित तबके के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना अपना दायित्व समझे। लेकिन पिछले कुछ दशकों में शिक्षा को व्यवसाय बनाने का जो कुचक्र रचा गया है, वह अब नये रूप में सामने आने लगा है। गुणवत्ता पर ध्यान देने के बजाय आय बढ़ाने का सबसे आसान फामरूला फीस बढ़ोतरी का है। सरकार और शैक्षणिक संस्थाओं को गंभीरता से विचारना होगा कि बच्चों को स्कूल तक पहुंचा देना ही काफी नहीं है। उन्हें मानसिक संबल देना भी उतना ही आवश्यक है।

अगर इस तरह के इकतरफा निर्णय लिये जाएंगे तो गरीब और दबी-पिछड़ी आबादी किस तरह शिक्षा प्राप्त कर देश के विकास में योगदान दे सकेगी? सीबीएसई को इससे इतर कुछ अन्य विकल्पों पर विचार करना चाहिए था। मसलन; सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों का ऑडिट कराते और जो उस खांचे में फिट नहीं होता, उस पर जुर्माना लगाते। साथ ही सरकारी अफसरों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाने के सख्त नियम बनाते। इससे बोर्ड को आय उपार्जन में आसानी होती। ऐसे अविवेकी निर्णय से भविष्य में नुकसान ही होगा।



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