येदियुरप्पा की सत्ता
कर्नाटक विधानसभा में बी.एस. येदियुरप्पा के विश्वासमत पाने के साथ वहां की राजनीति के जुगुप्सापूर्ण अध्याय का अंत हुआ है।
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करीब एक महीने से राज्य में विधायकों के इस्तीफे और मुंबई में लुका-छिपी का खेल चल रहा था, उससे असुंदर दृश्य राजनीति में कुछ नहीं हो सकता। हालांकि विधानसभा अध्यक्ष ने जिस तरह मामले को लटकाया उससे भी एक संवैधानिक पद की गरिमा पर प्रश्न खड़ा हुआ है। अंतत: उन्होंने थोकभाव में इस्तीफे नकार कर दल बदल कानून के तहत फैसला दे दिया उससे मामला अब सुप्रीम कोर्ट के पाले में आ गया है। अध्यक्ष इस्तीफा दे चुके हैं, लेकिन उनका फैसला तभी बदल सकेगा जब कोर्ट उस पर अंतिम फैसला दे।
यद्यपि कांग्रेस एवं जद-एस में असंतोष फूटने पर भाजपा लंबे समय तक शांत रही, लेकिन मुंबई के होटल में उनके ठहरने तथा सुरक्षा मिलने के कारण वह कठघरे में आ गई। आम धारणा यह बनी कि भाजपा असंतोष को समर्थन देकर सरकार गिराना चाहती है। इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा ने इसका लाभ उठाया, लेकिन एच. डी. कुमारस्वामी सरकार के खिलाफ गठबंधन के अंदर ही व्यापक असंतोष था। वस्तुत: भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के नाम पर कर्नाटक के दो जानी दुश्मन पार्टयिां कांग्रेस एवं जद-स ने हाथ मिलाया।
उस सरकार के स्थिर होने की संभावना थी ही नहीं। भाजपा को बहुमत प्राप्त नहीं था, लेकिन इतनी संख्या थी कि यदि गठबंधन से कुछ विधायक पाला बदल लें तो सरकार बन सकती है। वही हुआ है। येदियुरप्पा को अपनी चुनौतियों का आभास है। बहुमत साबित करने के बाद आने वाले समय में उन्हें विधानसभा की कुल संख्या के अनुरूप बहुमत पाना है। जिन सदस्यों की सीटें खाली हुई हैं, वहां चुनाव होगा। इस समय कर्नाटक का वातावरण भाजपा के अनुकूल लगता है। दूसरे, उनके सामने लंबे समय से अशासन की स्थिति का अंत करने की भी चुनौती है।
कर्नाटक बहुआयामी कारोबार वाला राज्य है। कुमारस्वामी सरकार के कुप्रबंधन के कारण हर तरह के कारोबारी सरकार के खिलाफ हो गए थे। इसे दुरु स्त कर राज्य की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना येदियुरप्पा की दूसरी बड़ी परीक्षा होगी। संभावना है कि भाजपा सरकार बनने के बाद कांग्रेस एवं जद-स, दोनों में और इस्तीफे हो सकते हैं। भाजपा उनमें से कितनों को फिर से चुनाव लड़ाकर शामिल करेगी, यह भी बड़ा प्रश्न होगा।
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