दमदार सियासी सफर
शीला दीक्षित हमसे दूर चलीं गई। एक दिन हम सभी को जाना है। पर जब तक यहां रहें तो कैसे रहें इसकी काफी कुछ सीख हम शीला दीक्षित के जीवन से ले सकते हैं।
दमदार सियासी सफर |
युवावस्था से लेकर राजनीति के अपने अंतिम दिनों तक उन्होंने अपने आचरण को ऐसा बनाए रखा कि आप बहुत बड़ा प्रश्न उनके किसी कदम पर नहीं उठा सकते। दिल्ली का इतिहास जब भी लिखा जाएगा 1998 से 2013 के उनके कार्यकाल का उसमें विस्तृत विवरण होगा। देश की राजधानी की सत्ता संभालना आसान नहीं है। एक राज्य और केंद्र शासित के बीच के प्रदेश में कई अधिकार केंद्र के पास है, जिसका प्रतिनिधि उप राज्यपाल है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के शासनकाल में हमने किस तरह के टकराव केंद्र एवं उप राज्यपाल से देखे हैं, उनसे शीला दीक्षित के कार्यकाल की तुलना करिए। ऐसा नहीं है कि उस दौरान मतभेद नहीं थे,पर उनके बीच से रास्ता निकालकर संतुलन बनाते हुए काम करने की कला उनसे आज के नेताओं को सीखना चाहिए। इसी तरह की कला मदनलाल खुराना में थी, जिनका निधन भी गत वर्ष हो गया। खुराना ने दिल्ली को राज्य का दर्जा मिलने के बाद कार्य और व्यवहार की जो नींव डाली, दीक्षित ने उसमें बहुत कुछ अपनी ओर से जोड़कर आगे बढ़ाया।
कभी किसी ने शीला दीक्षित से असंतोष या विरोध के एक स्वर नहीं सुने। राष्ट्रमंडल खेलों का सफल आयोजन उनके ही कार्यकाल में हुआ जिसमें दिल्ली का चेहरा बदल गया। हालांकि उस दौरान भ्रष्टाचार हुए, पर शीला दीक्षित के निजी स्तर उनमें कहीं से भी सम्मिलित होने का किंचित प्रमाण नहीं मिला। वर्तमान दिल्ली के स्वरूप में अभी तक सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का माना जाएगा। राजनीति का मतलब ही है संतुलन और धैर्य के साथ काम करना। दोनों ही कसौटियों पर आप शीला दीक्षित को खरा पाएंगे। उन्होंने अपनी पार्टी, साथियों के बीच भी संतुलन बनाए रखा, जिससे कोई बड़ा असंतोष कांग्रेस में नहीं उभरा। यह संभव हो सका उनकी व्यवहार कुशलता की वजह से। विपक्षी नेताओं और दलों के बारे में भी उनका एक बयान ऐसा नहीं मिलेगा जिसे आप निंदाजनक या तीखा कह सकें। बहुत शांति से अपनी बात रखती थीं और सबके लिए सम्मानजनक भाषा का प्रयोग भी करतीं थीं। सभी पार्टयिों के लोगों के साथ उनके निजी संबंध हमेशा बेहतर रहे। हम सबके लिए उनके जीवन चरित्र से काफी कुछ अपनाने के लिए हैं।
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