भाषा की राजनीति
संसद के वर्तमान सत्र में पिछले दिनों भाषा का सवाल गूंजा, तो उसकी सफाई वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को चेन्नई में देनी पड़ी।
भाषा की राजनीति |
दरअसल, पिछले दिनों डाक विभाग की परीक्षा सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी माध्यम में कराई गई थी। इस पर तमिल पार्टयिों को आपत्ति थी। उनका आरोप था कि तमिलनाडु में हिंदी थोपी जा रही है। मामले की नजाकत को भांपते हुए केंद्रीय संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने डाक विभाग की परीक्षा को रद्द कर इसे सभी तमिल समेत अन्य स्थानीय भाषाओं में कराने की घोषणा कर दी।
द्रमुक सदस्यों की इस मांग में कोई गलती नहीं थी कि तमिल भाषा में भी परीक्षा कराई जाए। यहां सवाल केवल तमिल का नहीं है, बल्कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं का है। जरूरत पड़े तो इन सभी भाषाओं में परीक्षा कराई जा सकती है, क्योंकि देश की भाषायी विविधता की सुरक्षा के मद्देनजर इसकी कीमत कोई मायने नहीं रखती। तमिल में परीक्षा न होने से तमिलवासियों को ऐसा लग सकता है कि केंद्र सरकार तमिलनाडु पर हिंदी थोपने का प्रयास कर रही है।
पर इस तर्कशास्त्र के मुताबिक यह आरोप अंग्रेजी भाषा पर भी लगना चाहिए था, क्योंकि इस माध्यम में भी यह परीक्षा हुई थी। ऐसे में हिंदी पर सवाल और अंग्रेजी पर चुप्पी का क्या मतलब निकाला जाए? कहीं यह अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखने की रणनीति का हिस्सा तो नहीं है? इसके पहले नई शिक्षा नीति के प्रारूप में व्यक्त त्रिभाषा फार्मूले पर भी विवाद हो चुका है, जिसमें केंद्र सरकार को पीछे हटना पड़ा था। जो भी हो, इससे इतना तो संकेतित हो रहा है कि यहां भाषा को लेकर राजनीति की जा रही है।
द्रविड़ आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि यह आकस्मिक नहीं है, लेकिन अब समय आ गया है कि ऐसी प्रवृत्तियों पर नये सिरे से विचार किया जाए। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भी दो बातों पर सहमति थी हिंदुस्तानी/हिंदी में राष्ट्र भाषा बनने की संभावना है और दूसरे, क्षेत्रीय भाषाई संस्कृति को पनपने देने का आग्रह। आज भी इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, पर ऐसा नहीं हो पा रहा है। हिंदी पट्टी के समाज में राजनीति की भाषा पर खूब बहस होती है, लेकिन दुर्भाग्यवश भाषा की राजनीति पर इस पैमाने पर विमर्श नहीं दिखाई पड़ता। ध्यान रहे भाषा का संबंध संस्कृति से भी होता है।
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