नियम-कानूनों से आगे
चुनावी बांड लगातार चर्चा में रहते हैं। चुनावी बॉन्ड राजनीतिक चंदे के माध्यम के तौर पर लाए गए थे।
नियम-कानूनों से आगे |
चुनावी बॉन्ड 1000, 10,000 और 1 लाख और 1 करोड़ रुपये के गुणक में खरीदे जा सकते हैं। दानकर्ता चुनाव आयोग के नियमों के तहत इन बॉन्डो का दान अपनी मनपसंद पार्टी को दे सकते हैं। बॉन्ड के लिए दानकर्ता को अपनी सारी जानकारी (केवाईसी) बैंक को देनी होगी। चुनावी बॉन्ड खरीदने वालों के नाम गोपनीय रखा जाएगा।
बैंक के पास इस बात की जानकारी होगी कि कोई चुनावी बॉन्ड किसने खरीदा है? सियासी दलों को चुनाव आयोग को भी बताना होगा कि उन्हें कितना धन चुनावी बॉन्ड से मिला? मोटे तौर पर कागजों पर ऐसा माना जा सकता है कि चुनावी वित्त व्यवस्था की सफाई हो गई होगी। पर ऐसा मानना निहायत बचकाना ही होगा। लगभग सारे प्रत्याशी कागज पर यह सिद्ध करने में कामयाब हो जाते हैं कि उनका चुनावी खर्च आयोग द्वारा तय सीमा के अंदर ही है। बरसों पहले पत्रकार पी साईनाथ में महाराष्ट्र में कुछ नेताओं द्वारा घोषित चुनावी खर्च का विश्लेषण करके साबित किया था कि चुनावी खर्च को सीमा के अंदर दिखाने के चक्कर में कई नेता इतने सस्ते रेट पर कई आइटम दिखाते हैं कि यह सब खानापूरी हास्यास्पद लगने लगती है।
वामपंथी दलों को छोड़ दें, तो लगभग हर महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल का पैसे के हिसाब किताब को लेकर निहायत गोल-मोल रवैया है। तमाम कंपनियों के खातों पर अंकेक्षकों के हस्ताक्षर होते हैं, इस बयान के साथ कि ये खाते स्थितियों का सत्य और उचित ब्यौरा पेश करते हैं। फिर हमें देखने को मिलता है कि वो कंपनियां तमाम तरह के घोटालों, गलत आंकड़ों कि रिपोर्टिंग में लिप्त पाई जाती हैं।
कुल मिलाकर मसला यह है कि कानून कुछ भी बना दिए जाएं, उसकी काट हमेशा मौजूद रहती है। कहना अनावश्यक है कि कई प्रोफेशनलों की फौज इसी काम में लगी रहती है कि किस तरह से हर स्याह को सफेद दिखा दिया जाए, कानून की पेट भर दिया जाए। तो चुनावी बॉन्डों से चुनावी वित्त व्यवस्था पाक साफ हो गई हो, ऐसा मानना एकदम ठीक नहीं है। चुनावी वित्त व्यवस्था ठीक तब होगी, जब तमाम मतदाताओं के दबाव में प्रत्याशी सही बही-खाते पेश करेंगे और सिर्फ काम को आधार बनाकर वोट मांगेगे। राजनीतिक रित देकर वोट नहीं मांगेंगे।
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