स्वास्थ्य के पैमाने पर पिछड़े
नीति आयोग की ‘हेल्दी स्टेट प्रोगेसिव इंडिया’ रिपोर्ट ने देश की स्वास्थ्य व चिकित्सीय सेवाओं की हकीकत बयां कर दी।
स्वास्थ्य के पैमाने पर पिछड़े |
यह दूसरा मौका है, जब आयोग ने राज्यों की रैंकिंग जारी की है। 21 राज्यों की सूची में सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बदतर बताई गई है। यानी सबसे पीछे। इसके बाद क्रमश: बिहार, ओडिशा आदि राज्य हैं। आश्चर्य की बात है कि बिहार और उत्तर प्रदेश पिछले साल भी इस सूची में पीछे थे। 23 संकेतकों के आधार पर राज्यों की सूची तय की गई है। इसमें नवजात स्वास्थ्य परिणाम मृत्यु दर, प्रजनन दर, जन्म के समय लिंगानुपात, संचालन व्यवस्था-अधिकारियों की नियुक्ति व अवधि और प्रमुख इनपुट-नसरे व डॉक्टरों के खाली पद आदि है। खास बात है कि रिपोर्ट को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, विश्व बैंक और नीति आयोग ने मिलकर तैयार किया है। रिपोर्ट को तीन हिस्सों बड़े राज्य, छोटे राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में बांटा गया है। यह तथ्य तो जगजाहिर हैं कि देश में स्वास्थ्य सुविधाएं रसातल में हैं। डॉक्टर नहीं मिलते, नर्स की घोर कमी है, दवा का वितरण कायदे से नहीं होता, अस्पतालों में सफाई का आलम बेहद दारुण है। किंतु सरकार के स्तर पर संवेदना का स्तर कैसा है, यह किसी से छिपा नहीं है।
लिहाजा, कई मसलों पर क्रांतिकारी कदम उठाकर ही देश की चिकित्सा व्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है। केरल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से सीखने की जरूरत है, जिन्होंने ऐसी ही परिस्थितियों में बेहतर माहौल रचा। हमें उन छोटे प्रदेशों का भी अनुकरण करना चाहिए जिनकी ईमानदारी और नैतिकता के साथ काम करने के तौर-तरीकों ने उसे ऊंचाइयों तक पहुंचाया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘आयुष्मान भारत’ की शुरुआत के वक्त कहा था, कि नागरिक अस्वस्थ हो तो राष्ट्र सशक्त नहीं हो सकता। मगर हमारे यहां कि जनता बीमार भी है और परेशान भी। देखना होगा, इस रिपोर्ट को लेकर सरकार के शीर्ष स्तर पर किस तरह की हलचल होती है?
राज्यों की सरकारें कैसे अपने को केरल आदि राज्यों के समकक्ष पहुंचने के वास्ते कार्यक्रमों को सख्ती से लागू कराती हैं? विडंबना ही है कि आजादी के 70 साल बाद भी स्वास्थ्य सेवाओं जैसी अतिमहत्त्वपूर्ण सेवाएं बिनी किसी विजन और नीति के चल रही हैं। यानी युद्धस्तर पर काम करने की जरूरत है।
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