एक साथ चुनाव
एक देश एक चुनाव के विचार को अभी सभी दलों का समर्थन नहीं मिलने वाला, यह पहले से ज्ञात था। इसलिए प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में बनी असहमति एवं कई दलों द्वारा शामिल न होने पर किसी को अचरज नहीं हुआ होगा।
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किंतु दूसरी ओर, 21 दलों के उसमें भाग लेने के महत्त्व को भी नहीं नकारा जा सकता। लोक सभा की सदस्य संख्या के अनुसार देखें तो 400 से ज्यादा सदस्यों वाली पार्टयिों ने उसमें शिरकत की। विरोधियों द्वारा ऐसी ठोस बातें नहीं उठाई गई जिनको जनता के बीच बहुत ज्यादा महत्त्व मिले। बार-बार चुनाव से देश मुक्ति चाहता है। देश के बहुमत की सोच है कि एक निश्चित समय के अंदर लोक सभा और विधानसभाओं के चुनाव हो जाएं और उसके बाद सरकारें अपने काम में लगें। हर कुछ अंतराल पर चुनाव का मतलब देश सतत राजनीति में तल्लीन रहती है। इसका अंत होना चाहिए। जाहिर है प्रधानमंत्री की इस पर एक राय बनाने की कोशिश स्वागतयोग्य है। हां, कोशिश का अर्थ इसका तत्काल साकार होना नहीं है। जिस तरह सभी विधानसभाओं के कार्यकाल में काफी अंतर आ गया है, उन सबका चुनाव एक साथ कैसे कराया जाए यह बड़ा प्रश्न है। कम्युनिस्ट पार्टयिों ने बैठक में यही प्रश्न उठाया कि इसको करेंगे कैसे? इसका कोई रेडिमेड जवाब नहीं हो सकता था। प्रधानमंत्री ने इसके लिए एक समिति बनाने का ऐलान किया है, जो समय सीमा के अंदर अपनी रिपोर्ट देगी। उस रिपोर्ट पर विचार करने के लिए सभी दलों की बैठक होगी।
ऐसी बैठक का बहिष्कार करने वालों का समर्थन नहीं किया जा सकता। आपका जो भी मत है, उसे बैठक में जाकर रखने में क्या हर्ज था? प्रधानमंत्री किसी मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए बैठक बुलाते हैं, तो उसका बहिष्कार करने का मतलब तब होता जब किसी दल को अपनी बात रखने का मौका नहीं मिलता। चुनाव सुधार एक बड़ा प्रश्न है। इस पहल को चुनाव सुधार की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है। सभी दलों को बैठक में जाकर अपना मत रखना चाहिए था। इससे भागना बेमानी है। जो आशंकाएं हैं, उनको उठाना, उन पर सरकार से स्पष्टीकरण मांगना और सुझाव देना परिपक्व रवैया होता। वैसे भी जिन दलों ने खुलकर एक साथ चुनाव का समर्थन कर दिया है, उनके अंदर वही आशंकाएं क्यों नहीं हैं? बीजद और वाईएसआर कांग्रेस के लिए क्या संघवाद कोई मायने नहीं रखता? वास्तव में विरोध राजनीतिक ज्यादा है।
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