मॉनसून की धीमी चाल
हमारे देश में आम धारणा है कि लोगों का जीवन मॉनसून यानी कि बारिश के ईर्द-गिर्द घूमता है। बारिश से हमारे यहां बहुत कुछ तय होता है।
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कह सकते हैं कि अच्छे मॉनसून से देश की अर्थव्यवस्था को पंख लगते हैं तो इसमें कमी संकट भी पैदा करती है। इस बार देखा जा रहा है कि मॉनसून की चाल औसत से भी सुस्त है। पिछले 12 साल में सबसे धीमी चाल से आगे बढ़ रहा है मॉनसून। केरल में जिस मॉनसून को जून के पहले हफ्ते में पहुंचना था, वह करीब एक हफ्ते देरी से पहुंचा। यहां तक कि जून के महीने में बारिश भी औसत से 44 फीसद कम हुई है। नतीजतन फसल चौपट होने के कगार पर है। और अगर खाद्यान्न उत्पादन में कमी होगी तो अर्थव्यवस्था के डगमगाने का खतरा ज्यादा बढ़ जाएगा। कुल मिलाकर मॉनसून की बेहद सुस्त रफ्तार ने किसानों, सरकार और जनता सभी के माथे पर चिंता की लकीर खिंच दी है। न केवल खेती-किसानी वरन स्वास्थ्य, उद्योग आदि सेवाओं पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। बेहद कम बारिश मतलब भीषण सूखे की आशंका। लिहाजा बाजार और गिरेगा साथ ही उपभोक्ताओं की मांग पर बुरा और व्यापक प्रभाव पड़ेगा। औसत से कम मॉनसून की भविष्यवाणी पहले ही भारतीय मौसम विभाग और मौसम की जानकारी देने वाली निजी एजेंसी स्काईमेट कर चुकी है।
मॉनसून से पहले की बारिश भी कम हुई है। देश के कई हिस्से सूखे की चपेट में हैं, दक्षिण भारत के कई शहरों में पानी की भारी किल्लत हो गई है जबकि ज्यादातर जलाशयों में 10 फीसद से भी कम पानी का भंडार बचा है। यहां जिम्मेदारी सीधे-सीधे सरकार पर आ जाती है। फिलहाल जो हालात हैं, उसमें अगर सरकारी तंत्र सक्रिय और सतर्क नहीं हुआ तो न केवल अर्थव्यवस्था बल्कि महंगाई, राजस्व में कमी आदि दिक्कतों से देश को दो-चार होना पड़ेगा। हालात की गंभीरता को समझते हुए सरकार द्रुत गति से राहत के उपाय तलाशे। जागरूकता का संचार हो, किसानों को ड्राई लैंड फार्मिग के बारे में बताया जाए। कम पानी होने वाली फसलों के बारे में प्रचार-प्रसार हो। पूर्व में मॉनसून में कमी के दुष्परिणाम हम झेल चुके हैं, इसलिए अगर समय रहते व्यवस्था चाक-चौबंद होगी तो हालात उतने बुरे नहीं होंगे। फिलवक्त अर्थव्यवस्था की स्थिति डांवाडोल है। ऐसे में सरकार को ज्यादा चौकन्ना रहना होगा। यह भी चिंतनीय है कि आजादी के 70 साल बाद भी हम मॉनसून पर खेती की निर्भरता को कम नहीं कर सके हैं।
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