अयोध्या हमले में न्याय
अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि पर हुए आतंकवादी हमले पर आए न्यायालय के फैसले पर अलग से कोई टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं।
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पांच जुलाई, 2005 को सुबह जब आतंकवादियों ने विस्फोटकों से भरी जीप को परिसर की दीवार से टकराया एवं उसके बाद गोलीबारी शुरू की, उसी समय साफ हो गया था कि इसके पीछे साजिश है। हालांकि सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में पांचों वहीं मारे गए। दुर्भाग्यवश दो निर्दोष भी चपेट में आकर जान गंवा बैठे। सुरक्षा बल भी घायल हुए। जांच शुरू हुई तो पता चला कि लश्कर-ए-तैयबा के उन आतंकवादियों को पनाह देने से लेकर उनको विस्फोटक आदि मुहैया कराने, उनकी साजिश में हर संभव साथ देने में कई लोगों की भूमिका है। उसमें से पांच गिरफ्तार हुए। हालांकि न्यायालय ने एक को बरी कर चार को आजीवन कारावास एवं ढाई-ढाई लाख का जुर्माना लगाया है। उस समय जब इन पर मुकदमा चलना आरंभ हुआ, आतंकवाद को लेकर ऐसा डरावना वातावरण था कि उनके कचहरी जाते समय आतंकवादियों द्वारा छुड़ा कर ले भागने की साजिश की भी खबर आई। उन्हें अयोध्या कारावास में रखा गया था। खुफिया सूचना में जेल से भी छुड़ाने की बात सामने आई। अंतत: न्यायालय के आदेश पर 2006 में इन सबको केंद्रीय कारागार नैनी में स्थानांतरित किया गया।
विशेष न्यायालय की पूरी प्रक्रिया भी जेल में ही चली। समय बीतने के साथ मनुष्य की स्मृतियों से अनेक घटनाएं गायब हो जाती हैं। अयोध्या आतंकवादी हमले को भी देश भूल चुका था। निश्चय ही चिंता का विषय है कि विशेष न्यायालय को फैसला सुनाने में 14 वर्ष लग गए। ऐसे मामलों में न्यायिक प्रक्रिया ज्यादा तीव्र होनी चाहिए। अयोध्या हमला हुए एक युग बीत गया और अभी सबसे निचले स्तर के न्यायालय का फैसला आया है। अभियुक्त निश्चय ही उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तक जाएंगे। कल्पना की बात है कि उसमें कितना समय लगेगा। विलंबित न्याय भारतीय न्यायपालिका का सबसे चिंताजनक पहलू है। हालांकि इधर आतंकवाद एवं बच्चियों-बच्चों के साथ यौन अपराध के मामले में न्यायिक प्रक्रिया तेजी से पूरी हुई है। किंतु अयोध्या हमले जैसे महत्त्वपूर्ण मामले में इतना समय कतई नहीं लगना चाहिए था। उत्तर प्रदेश सरकार इस फैसले का ध्यान रखते हुए एक बार अन्य आतंकवादी हमले से संबंधित मुकदमों की समीक्षा करे और आवश्यकता हो तो फास्ट ट्रैक न्यायालय गठित कर सारे मुकदमे उसमें स्थानांतरित करे।
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