बचना बेहतर होता
लोकसभा में सदस्यों के शपथ ग्रहण के दौरान नारेबाजी की घटना वाकई दुखदायी है। ऐसा नहीं होना चाहिए था।
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सदन की गरिमा होती है, इसका सम्मान करना हर किसी का परम कर्त्तव्य है। मगर जिस तरह से सदस्यों के बीच नारा लगाने की प्रतियोगिता हुई, वह लोकतंत्र को न केवल चोटिल करती है, वरन देश की छवि को भी दागदार करती है। क्योंकि कार्यवाही के साक्षी कई विदेशी मेहमान भी सदन में मौजूद थे। दुखद यह कि प्रोटेम स्पीकर के नारेबाजी के लिए मना करने के बावजूद किसी सदस्य पर इसका असर नहीं पड़ा। महज एक दिन पहले सदन के पहले दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सभी सदस्यों से गरिमापूर्ण व्यवहार की उम्मीद जताई थी। उन्होंने यह भी उम्मीद जताई थी कि सभी सदस्य सदन में उत्तम चर्चा करेंगे। मगर एक दिन बाद ही प्रधानमंत्री के कहे को सभी सदस्यों ने बिसरा दिया। सदस्यों के शपथ लेने के जय हिंद या वंदे मातरम या देश के सम्मान में नारा लगाने की परंपरा रही है, किंतु इस बार जय श्री राम और मंदिर वहीं बनाएंगे या जय काली, जय बंगाल या अल्लाह हो अकबर के नारे ने निचले सदन की गरिमा को भारी ठेस पहुंचाई है। यह कृत्य बताता है कि अभी भी हम लोक सभा सदस्य के पद का सम्मान करने के मामले में अनाड़ी हैं।
नारेबाजी का सदन में कोई औचित्य नहीं था। होना तो यह चाहिए था कि सभी सदस्य एक-दूसरे की भावनाओं को समझते और उसी अनुरूप आचरण करते। जितने जतन और लगन से लोग चुनकर आए हैं, सदन भी उतने ही जतन से बना है। इस बात को संजीदगी से समझना और अपनी उपस्थिति से उसे गौरव प्रदान करना ही सदस्यों का उद्देश्य होना चाहिए था। यह नहीं कि पहले दिन से हूटिंग और अपने कठोर व्यवहार से यह संदेश देना कि हम तो ऐसा ही करेंगे। यह किसी भी दृष्टिकोण से सम्मान और शाबाशी के लायक आचरण नहीं कहा जा सकता है। आश्चर्य कि वरिष्ठ सांसदों ने भी इस मसले पर सदस्यों को ऐसा करने से मना नहीं किया। उल्टा वह भी इस नारा लगाने वालों का हिस्सा बन गए। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नारेबाजी से उपजी तल्खी ने आने वाले समय का संकेत भी कर दिया है। इससे बचा जा सकता था। सिर्फ प्रधानमंत्री के उम्मीद जताने भर से सदन नहीं चल सकता, इसके लिए हर किसी को सदन की समझ विकसित करनी होगी।
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