मोदी को क्लीनचिट
चुनाव आयोग द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निर्दोष करार दिए जाने के बाद विवाद खत्म हो जाना चाहिए।
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किंतु हमारे देश का चरित्र ऐसा हो गया है कि अपने मन के अनुसार फैसला आए तो सही नहीं आए तो फिर फैसला देने वालों को घेरा जाता है। यही चुनाव आयोग के साथ हो रहा है। वैसे भी मोदी का मामला है तो विपक्ष एकदम शांत हो नहीं सकता। चुनाव आयोग यदि दलों और नेताओं की आलोचनाओं की परवाह करने लगे तो फिर वह नीर-क्षीर-विवेक से कोई फैसला कर ही नहीं सकता। प्रधानमंत्री पर 1 अप्रैल को महाराष्ट्र के वर्धा में दिए गए भाषण को लेकर आरोप था कि उन्होंने आचार संहिता का उल्लंघन कर सांप्रदायिकता फैलया है। आयोग कह रहा है कि उसने पूरा भाषण मंगाया और उसको सुनने के बाद उल्लंघन जैसी कोई चीज सामने नहीं आई। प्रश्न है कि चुनाव आयोग की बात मानी जाए या आरोप लगाने वाले की?
उस रैली में प्रधानमंत्री ने कहा था कि कांग्रेस को कैसे माफ किया जा सकता है? जब आप लोग हिन्दू आतंकवाद की बात सुनते हैं तो क्या आप लोग दुखी महसूस नहीं करते। एक समुदाय जो शांति, भाईचारा और सद्भाव के लिए जाना जाता है, उसे आतंकवाद से कैसे जोड़ा जा सकता है? हजारों साल के इतिहास में एक भी ऐसा वाकया नहीं है, जिसमें हिन्दू आतंकवाद का जिक्र हो, यहां तक कि ब्रिटिश भी यह नहीं कह सके। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस पर तीखा हमला किया था। कोई भी गहराई से देखेगा तो इसमें सांप्रदायिकता फैलाने का अंश नहीं दिखेगा। यह यूपीए सरकार की आतंकवाद विरोधी नीति की आलोचना है, जिसके तहत कई हमलों के लिए हिन्दू संगठनों के नेताओं-कार्यकर्ताओं को जिम्मेवार ठहराया गया था।
याचिकाकर्ता का आरोप था कि मोदी का भाषण योगी आदित्यनाथ, मायावती, मेनका गांधी या सिद्धू के भाषणों के समतुल्य है। ऐसा बिल्कुल नहीं है। हमारा मानना है कि राजनीतिक दलों को लोकतंत्र के दूरगामी भविष्य का ध्यान रखते हुए चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की आलोचना करने या उसकी निष्पक्षता पर प्रश्न नहीं उठाना चाहिए। राजनीतिक दल आयोग से शिकायत करें, लेकिन एक बार आयोग फैसला दे दे तो वह हमारे अनुकूल है या नहीं इस पर विचार करने की जगह उसे स्वीकार कर लिया जाए। किंतु राजनीति के वर्तमान चरित्र को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि हमारे राजनीतिक दल इतनी जिम्मेवारी का परिचय देंगे।
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