पहला लोकपाल
लोकसभा चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद नरेन्द्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज पिनाकी चंद्र घोष को भारत का पहला लोकपाल नियुक्त करके विपक्ष के हाथ से एक प्रमुख मुद्दा छीन लिया है।
पहला लोकपाल |
हालांकि सरकार के लिए लोकपाल नियुक्त करने का फैसला लेना आसान नहीं रहा होगा। लोकपाल का पद उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार की शिकायत सुनने एवं उस पर कार्रवाई करने वाली एक ताकतवर संस्था है। लोकपाल कानून अपनी प्रकृति और स्वरूप में काफी कठोर है।
उसका न्यायिक क्षेत्राधिकार काफी विस्तृत है। लोकपाल पूर्व और वर्तमान प्रधानमंत्री, पूर्व और वर्तमान मंत्री, सांसद और सभी लोकसेवकों के विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच कर सकता है। कानून द्वारा प्राप्त उसकी असीम शक्तियां इस संस्था की कमजोरी भी हैं। देश में जो संसदीय परम्पराएं विकसित हुई हैं, उनके लिहाज से प्रधानमंत्री पद की सत्ता सवरेपरि है।
आज भारतीय राजनीति जिस तरह ओछी और गर्हित हो गई है, उसमें प्रधानमंत्री से लेकर किसी भी उच्च पदों पर आसानी व्यक्ति के विरुद्ध भ्रष्टाचार का आरोप बहुत आसानी से लगाया जा सकता है। अगर लोकपाल के पद पर किसी राजनीति प्रेरित व्यक्ति की नियुक्ति हो गई तो वह किसी भी सरकार को सुचारु रूप से अपने दायित्वों के निर्वहन में अवरोध बन सकता है।
मोदी सरकार इन परिस्थितियों से वाकिफ रही है। यही वजह है कि मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के दबाव और विपक्ष के विरोध के कारण अपने कार्यकाल के आखिरी में फैसला लेना पड़ा है। लोकपाल को टाले रखने के सरकार के सभी बहानों व दलीलों को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज करते हुए फरवरी के अंत तक लोकपाल को नियुक्त करने का निर्देश दिया। लोकपाल की नियुक्ति के लिए चयन समिति की जो बैठक बुलाई गई थी, उसी के साथ ओछी राजनीति भी शुरू हो गई है।
कांग्रेस के मलिकाजरुन खड़गे संसदीय परम्पराओं और नियमावलियों के मुताबिक अधिकृत विपक्ष के नेता नहीं हैं, अत: उन्हें विशेष आमंत्रित सदस्य बतौर बुलाया गया था। लेकिन उनका बैठक-प्रस्ताव को ठुकराना बताता है कि विपक्ष अच्छे कामों में भी सरकार को सहयोग करना नहीं चाहता है। लोकपाल संस्था अभी निर्माण की प्रक्रिया में है। वह किस तरह से कामकाज करेगी, अभी इसका निर्धारण होना है। इसलिए विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों को एक दूसरे को सहयोग करना होगा, वरना लोकपाल नामक संस्था खड़ी भी न हो पाएगी।
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