यूपी: 47 से 325 तक का ऐतिहासिक सफर...

Last Updated 12 Mar 2017 10:11:48 AM IST

मार्च 2017 का दिन भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा. ऐसा न सिर्फ इसलिए कि देश के सबसे बड़े प्रदेश की सत्ता बीजेपी के हाथ लगी है बल्कि इसलिए कि यह सत्ता एक व्यक्ति के नाम और काम के सहारे हासिल हो सकी. वह करिश्माई शख्स हैं नरेन्द्र मोदी.


47 से 325 तक का ऐतिहासिक सफर...

इस बात के पक्ष में सिर्फ एक तथ्य ही काफी है और वो ये कि 2012 में बीजेपी के पास वही संगठन था, दिग्गज नेता भी थे, राष्ट्रीय दल की हैसियत भी थी मगर उसे संतोष करना पड़ा था महज 47 सीटों पर. आज सब कुछ वही है. अगर कुछ बदला है तो यह कि पार्टी के पास शीर्ष नेतृत्व के रूप में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं.

यूं तो औपचारिक तौर पर किसी दल का शीर्ष नेतृत्व उसका अध्यक्ष होता है मगर यहां शीर्ष नेतृत्व से आशय उस चेहरे से है जो किसी दल के लिए वोट बटोरने का काम करता है. वर्ष 2012 में 47 सीटों से 2017 में 312 (बीजेपी गठबंधन 325) सीटें पाने तक की यात्रा इस मायने में भी ऐतिहासिक रही है कि 1990 के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति और सम्प्रदाय के बंधन में जकड़ती चली गयी.

यह सिर्फ मोदी का करिश्मा ही था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 में से 73 (2 सहयोगी दल) सीटें पार्टी तब जीत सकी जब उसे जाति और क्षेत्रीय भावनाओं से ऊपर उठकर वोट मिले. ठीक यही 2017 के विधानसभा चुनाव में हुआ जिसके परिणाम 11 मार्च को आये हैं. 403 में 325 (13 सहयोगी दल) सीटें किसी दल को तब तक नहीं मिल सकतीं जब तक उसे लगभग हर जाति और क्षेत्र से वोट न मिले.

दिल्ली भाजपा मुख्यालय में पत्रकारों से बातचीत में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने शनिवार को कहा कि उत्तर प्रदेश की यह प्रचंड जीत सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी के नाम और उनकी सरकार के काम की वजह से ही मिली है. इसका दूसरा कोई कारण आप मत तलाशिये.

मोदी का नाम जनमानस में किस कदर घर कर चुका है, इसकी एक बानगी विगत दिनों एक बैंक में देखने को मिली जिसमें एक महिला कैश काउन्टर पर क्लर्क से बातचीत में कह रही थी कि मेरा बैंक में ‘मोदी एकाउन्ट’ है. मजे की बात तो ये कि क्लर्क ने भी उस महिला ग्राहक को जवाब में ‘मोदी एकाउन्ट’ शब्द का ही इस्तेमाल किया.

पार्टी के हर बड़े नेता से पत्रकारों ने चुनाव के दौरान यह सवाल पूछा कि क्या इस चुनाव को नोटबंदी पर ‘जनमत संग्रह’ माना जाए?.. जवाब में उन्होंने बड़े ही आत्मविश्वस से कहा, ‘‘यह जनमत संग्रह हमारे पक्ष में जबरदस्त ढंग से जाने वाला है.’’ इस आत्मविश्वास का कारण यही था कि पार्टी के नेता आम आदमी की उस भावना को भांप चुके थे कि नोटबंदी एक अच्छा कदम है, इससे कालाधन बाहर आयेगा और वह आगे जाकर आम आदमी पर खर्च होगा. दूसरी तरफ भाजपा के विरोधी दल इस भावना को ‘पढ़’ पाने में पूरी तरह चूक गये.

बीजेपी योजनाबद्ध ढंग से किसानों को यह संदेश देने में सफल रही कि उनका कर्ज माफ होगा. उज्जवला योजना की चर्चा ग्रामीण इलाकों में बहुत हुई जिसके तहत 70 लाख गैस कनेक्शन गरीबों के घरों में पहुंचाये गये. समाजवादी पार्टी की सरकार की दुखती नब्ज बिगड़ी कानून-व्यवस्था को बीजेपी ने खूब भुनाया. अखिलेश के ‘काम बोलता है’ के नारे को उलटकर ‘कारनामे बोलते हैं’ के रूप में पेश किया.

शायद यही करण रहा कि प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ‘रिवर फ्रंट’, ‘जनेश्वर मिश्र पार्क’, मेट्रो, सीजी सिटी में कई बड़े प्रोजेक्ट (मेदान्ता अस्पताल) देने के बाद भी लखनऊ में ही सपा 9 में से सिर्फ एक सीट जीत सकी. मतलब ये कि भले ही उसने कुछ काम किया लेकिन वह इसे कारगर ढंग से भुना नहीं सकी.

बीजेपी की जीत का एक बड़ा कारण रहा आक्रामक प्रचार. दूसरे दल का कोई नेता ऐसा जुमला नहीं छोड़ सका जिसका जवाब मोदी या अमित शाह को देना पड़ा हो बल्कि मोदी नयी-नयी बातें छोड़ते रहे और आगे बढ़ते रहे. दूसरे दलों के नेता सिर्फ  उनका जवाब देने में भी फंसे रह गये. मसलन ‘श्मशान-कब्रिस्तान’, ‘बिजली ईद-होली-दीवाली’ आदि-आदि. तरह-तरह की चर्चाएं चुनाव के दौरान हवा में तैरती रहीं. जैसे- सपा ने कांग्रेस के लिए जो 105 सीटें छोड़ी हैं, वहां यादव वोट कांग्रेस को न जाकर मायावती को रोकने के लिए भाजपा में जायेगा.

जिन 298 सीटों पर कांग्रेस ने प्रत्याशी नहीं उतारे, वहां कांग्रेस का परम्परागत वोट सपा को न जाकर भाजपा को जायेगा. मायावती के खुलकर मुस्लिम वोट मांगने से दलित वोट नाराज  है और वह कुछ सीमा तक भाजपा में जा सकता है. अब जब चुनाव परिणाम आ गये हैं तब लगता है कि इन चर्चाओें ने कहीं न कहीं हकीकत का रूप जरूर लिया है वरना बीजेपी की लहर सुनामी में तब्दील नहीं होती.

इस चुनाव में यदि शोर मचा तो वह सिर्फ टेलीविजन चैनलों और दूसरे मीडिया का था. बाकी तो इस कदर सन्नाटा पसरा था कि जनता का मूड बड़े-बड़े विश्लेषक और राजनीतिक पंडित नहीं भांप पा रहे थे. अधिकतर लोग भाजपा को नम्बर एक की पार्टी बनने तक की ही सफलता का आकलन कर रहे थे. वो यह अंदाजा नहीं लगा सके कि 2014 में चली भाजपा की आंधी 2017 आते-आते थमी नहीं है बल्कि और तेज हो गयी है.

यदि कहा जाए कि यूपी में भाजपा की जीत का श्रेय किसी एक शख्स को जाता है तो वो हैं पीएम नरेन्द्र मोदी तो यह अतिश्योक्ति हरगिज नहीं होगी. हां, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह उनके मजबूत रणनीतिकार जरूर साबित हुए. इस जोड़ी ने वो कमाल कर दिखाया जिसकी कल्पना किसी सर्वे या एग्जिट पोल ने नहीं की थी. साफ है कि यूपी ने ‘राहुल-अखिलेश’ के साथ और मायावती की सोशल इंजीनियरिंग को पसंद नहीं किया बल्कि ‘मोदी-शाह’ की जोड़ी का साथ दिल खोलकर दिया.
 

 

मनोज तोमर


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