दिमागी बुखार नियंत्रित नहीं होने पर छिडी बहस

Last Updated 16 Aug 2017 04:03:58 PM IST

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में स्थित बाबा राघवदास मेडिकल कालेज में दिमागी बुखार से बच्चों की हो रही मौत का क्रम पिछले चार दशकों से क्यों जारी है. इस पर नियंत्रण क्यों नहीं हो पा रहा है, इस विषय को लेकर विशेषज्ञों में एक नयी बहस छिड़ गयी है.


(फाइल फोटो)

बाबा राघवदास मेडिकल कालेज में पिछले दिनों आक्सीजन आपूर्ति बाधित होने के कारण 36 घंटे में 33 बच्चों की मृत्यु की घटना ने पूरे राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खींचा है, लेकिन इस बीमारी पर नियंत्रण क्यों नहीं हो रहा है यह मंगलवार को भी बहस का विषय बना हुआ है.
       
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कल 15 अगस्त को देश के 70वीं वषर्गांठ पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए गोरखपुर के मेडिकल कालेज में हुयी बच्चों की मौत का उल्लेख किया और इस पर दुख जताया.
       
इस मेडिकल कालेज में लगातार हो रही मौतें निश्चित रूप से दुख का विषय भी है और शर्म का भी. जो हमें अन्दर तक झकझोर देती है. फिर प्रश्न उठता है कि हम इस बीमारी की रोकथाम के लिए सही दिशा में प्रयास किये जा रहे हैं या फिर हम बीमारी के मूल कारणों को ही नहीं समझ पा रहे हैं.

बाबा राघवदास मेडिकल कालेज में दिमागी बुखार की कवरेज करने आयी मेडिकल साइंस से जुड़ी संवाददाता प्रियंका पूला के अनुसार वर्ष 1978 से शुरू हुयी इस महामारी के लिए जिम्मेदार वायरस की तह तक नहीं पहुंच सके.
       
यह बात सही भी लगती है क्योंकि जब इस महामारी बीमारी का आरम्भ हुआ तो तेज बुखार और दिमाग में सूजन की बात सामने आयी लेकिन अब जो बात सामने आ रही है उसमें कहा जा रहा है कि दिमागी बुखार के लिए जापानीज इंसेफेलाइटिस (जेई) मात्र एक कारण नहीं है बल्कि टाइपस बताया जा रहा है.
       
1995 में देश-विदेश से आयी विशेषज्ञों की टीमें इस निष्कर्ष पर पहुंची थीं, जापानी इन्सेफेलाइटिस से शुरू हुआ यह दिमागी बुखार अब अपना रूप बदल चुका है. यानी इसके वायरस ने अपने म्यूटेशन या उत्परिवर्तन के द्वारा अपना स्वरूप बदल लिया है और अब छोटे-छोटे उत्परिवर्तनों के कारण वायरसों का एक बड़ा समूह बन गया है.
       
वायरस के आक्रमण के बाद उसके प्रकार की जांच में काफी समय निकल जाता है. जब तक डॉक्टर बीमारी की सही दवा तक पहुंचे, मरीज काल के गाल में समा जाता है. उस समय इसे एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम (एईएस) का नाम दिया गया.
       
सामान्य भाषा में सिन्ड्रोम कोई विशिष्ट बीमारी न होकर बीमारियों के लक्षण का समूह होता है. विडम्बना यह है कि जिस क्षेत्र में यह वायरस एक या अधिक बच्चे को अपनी चपेट में लेता है. वहां यह दुबारा नहीं होता इस लिए किसी क्षेत्र विशेष को किसी विशेष वायरस के प्रभाव क्षेत्र के रूप में चिन्हित करके कोई कार्ययोजना बनाना लगभग असंभव है.
      
दिमागी बुखार के नियंत्रण के लिए वर्ष 2007 में जापानी इन्सेफेलाइटिस (जेई) के लिए टीकाकरण किया गया था जिससे इस बीमारी से होने वाली मौतों में 25 प्रतिशत की कमी आ गयी थी और थोडी राहत मिली. और अब तो जेई के
मरीजों के मुकाबले एईएस के मरीज ही अधिक आ रहे हैं.
       
यहां यह भी बता देना प्रासंगिक है, कि जेई के लिए टीकाकरण कराये जाने का अब कोई विशेष लाभ नहीं है, क्योंकि अस्पतालों में आने वाले दिमागी बुखार के मरीजों में कुछ मरीजों में ही जेई की पुष्टि हुई है. कुछ नये उपजे वायरस की प्रजाति का पता लगाकर उनके टीके विकसित करने का काम अभी चल रहा है.
       
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि मौत का सिलसिला तभी रूक सकता है जब टाइपस नामक इस वायरस को नियंत्रित किया जाय.

बीआरडी मेडिकल कालेज में स्थित नेशनल इंस्टीच्यूट आफ वायारोलोजी के वैज्ञानिकों का कहना है कि इस दिमागी बुखार के लिए एन्टेरो-वायरस भी जिम्मेदार है. उत्तर प्रदेश सरकार भी दूषित पेय जल और स्वच्छता के अभाव में इसका कारण मानती है परन्तु दूसरी ओर जेई का टीकाकरण भी कराती है.
      
इस बार इस बीमारी का रूप कुछ भंयकर है. तेज बुखार और झटके आने के बाद लोग बच्चों को निजी अस्पतालों में दिखाते हैं और अंतिम चरण में इस मेडिकल कालेज में पहुंचते हैं.
      
सूत्र बताते हैं कि देश का एक बड़ा भूभाग वैक्टर बार्न डिजीज (विषाणु जनित बीमारियों) तथा वाटर बार्न डिजीज (जल जनित बीमारियों) से किसी न किसी रूप में प्रभावित है लेकिन उसके बचाव, उपचार एवं उन्मूलन के लिए जो प्रभावी कार्यवाही होनी चाहिए वह नही हो रही है जिसके कारण हजारों मौतें प्रतिवर्ष हो रही हैं. इस बीमारी से उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा असम सर्वाधिक प्रभावित क्षेा हैं. यह बीमारी देश के अन्दर 19 राज्यों के लगभग 170-171 जिलों में फैली हुई है.
       
उत्तर प्रदेश में यद्यपि 35-36 जिले इस बीमारी की चपेट में हैं लेकिन सर्वाधिक प्रभावित जिले गोरखपुर, कुशीनगर, महाराजगंज, सिद्धार्थनगर, देवरिया, बस्ती तथा संत कबीर नगर हैं, बिहार में मुजफ्फरपुर, पूर्वी चम्पारण, वैशाली, सीतामढी, पश्चिम बंगाल में मालदा, जलपाईगुड़ी, कूच बिहार, दार्जलिंग, उत्तर और दक्षिण दिनाजपुर तथा असम में बारपेटा, बक्सा, दरांग, डिबरूग-सजय़, जोरहाट, कामरूप ग्रामीण, कामरूप मैट्रो, शिव सागर, सोनितपुर जिले दिमागी बुखार से सर्वाधिक प्रभावित हैं.

गोरखपुर के जाने माने बच्चों के चिकित्सक एवं इंसेफेलाइटिस उन्मूलन अभियान के डा. आर सिंह मंगलवार को यूनीवार्ता से बताया कि लगभग 40 वर्ष से मौत का आंकड़ा हर वर्ष बढ़ता गया और राजनीति होती रही तथा आरोप प्रत्यारोप चलता रहा. अगर सरकारों के पास ठोस दीर्घकालीन राष्ट्रीय इन्सेफलाइटिस उन्मूलन कार्यक्रम होता तो सम्भवत: यह बीमारी पूर्वी उत्तर प्रदेश और देश के बचपन को इस भयावहता के साथ नहीं निगल पाती.
       
उन्होंने कहा कि यह आश्चर्यजनक है कि दलितों, अल्पसंख्यकों, गरीबों और किसानो की बात राजनीतिक दल बड़े जोर-शोर से करते हैं लेकिन यह दुखद सच्चाई है कि इस बीमारी से मरने वाले 95-99 प्रतिशत बच्चे दलित, अल्पसंख्यक तथा गरीब परिवारों से हैं. और यह बात भी अपने आप में सत्य है कि गरीबी और अभाव में जीने वाली इस आबादी में बीमारी के प्रकोप का एक बड़ा कारण गंदगी और साफ पेयजल की अनुपलब्धता है.
       
श्री सिंह ने यह भी बताया कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर इंसेफेलाइटिस मुद्दे पर उदासीनता बरतने का आरोप पूरी तरह से निराधार है, क्योंकि वह पिछले दो दशकों से इस मुददे को सडक से लेकर संसद तक उठाते रहे हैं.


      
नेशनल वैक्टर बॉर्न डिजीज कन्ट्रोल प्रोग्राम, नेशनल सेन्टर फॉर डिजीज कन्ट्रोल, सेन्टर फॉर डिजीज कन्ट्रोल अटलांटा, इण्डियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च आदि देशी-विदेशी संस्थाएं अक्सर गोरखपुर के इस मेडिकल कालेज का दौरा करती हैं लेकिन अब तक रोग के सही कारण का पता न लग पाना यह साबित करता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश का मासूम इन संस्थाओं के लिए गिनी पिग्स बनकर रह गया है.
       
पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह बीमारी 1978 में आई. वर्ष-दर-वर्ष मौत के आंकड़े बढ़ते गए. इस वर्ष अभी तक 539 मरीज भर्ती हो चुके हैं जिनमे162 की मौत हो चुकी है. मानसून के आते ही गंदगी, बाढ़ और मच्छर इस बीमारी की भयावहता को बढ़ाने में मदद करते हैं. बीमारी फैलने के एक से अधिक कारण तो हो सकते हैं लेकिन विशेषज्ञ इस बात पर एक मत हैं, कि साफ-सफाई और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराकर इस बीमारी को काफी हद तक कम किया जा सकता है.

भाषा


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