मध्य प्रदेश के राजनीतिक संकट पर क्या कहते हैं कानून विशेषज्ञ?

Last Updated 17 Mar 2020 10:05:51 AM IST

मध्य प्रदेश में शक्ति परीक्षण (फ्लोर टेस्ट) के मसले पर घमासान मचा है। राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष के बीच गतिरोध कायम है। राज्यपाल फ्लोर टेस्ट कराना चाहते हैं तो स्पीकर कोरोना वायरस के बहाने से मामला टाल रहे हैं। 16 मार्च को फ्लोर टेस्ट न होने के बाद एक बार फिर राज्यपाल लालजी टंडन ने पत्र लिखकर 17 मार्च को फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दिया है।


मुख्यमंत्री कमलनाथ, शिवराज सिंह चौहान (फाइल फोटो)

उधर, स्पीकर 26 मार्च तक के लिए विधानसभा स्थगित कर चुके हैं। मामला भाजपा की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में भी जा चुका है। ऐसे में मध्य प्रदेश का सियासी संकट किस तरह से जटिल होता जा रहा है? राज्य के सियासी घटनाक्रम को लेकर उठ रहे कुछ सवालों का सुप्रीम कोर्ट के वकील और कानूनविद विराग गुप्ता ने जवाब दिया।

मध्य प्रदेश का संकट किस ओर जाता दिखता है? इस सवाल पर विराग गुप्ता ने कहा, "मध्य प्रदेश में दो तरह के राजनीतिक संकट हैं। दलबदल विरोधी कानून के प्रावधानों को मात देने के लिए विधायकों से त्यागपत्र दिलाने का नया तरीका कानून में बारूदी सुरंग बनाने जैसा है। विधायकों के त्यागपत्र के बाद राज्य सरकार के पास बहुमत नहीं होने के बावजूद राज्य सरकार द्वारा तिकड़म किए जाने से अब नए संवैधानिक संकट पैदा हो रहे हैं। इस संकट के केंद्र में फिलहाल राज्यपाल, स्पीकर और मुख्यमंत्री हैं, जिसमें अब सुप्रीम कोर्ट की भूमिका के साथ आने वाले समय में केंद्र सरकार का हस्तक्षेप भी निर्णायक साबित हो सकता है।"

अगर स्पीकर ने 17 मार्च को फिर फ्लोर टेस्ट नहीं कराया तो क्या होगा? उसके जवाब में उन्होंने कहा, "राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री को पत्र लिखा जा रहा है, जबकि फ्लोर टेस्ट विधानसभा अध्यक्ष को कराना है। 17 मार्च को फ्लोर टेस्ट नहीं कराने के लिए स्पीकर को कोई वैध कारण बताना होगा।"

यह पूछे जाने पर कि क्या विधानसभा अध्यक्ष राज्यपाल के आदेश को मानने के लिए क्या बाध्य हैं? कानूनविद ने कहा, "राज्यपाल स्पीकर को सुझाव दे सकते हैं लेकिन राज्यपाल के आदेश को मानने के लिए स्पीकर बाध्य नहीं हैं। स्पीकर यदि कोरोना को आधार मानकर विधानसभा सत्र को स्थगित करें तो इसमें नए तरीके का गतिरोध हो सकता है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में भी इससे संबंधित महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई हो रही है।"

उन्होंने आगे कहा, "कोरोना को महामारी घोषित करने के बाद भोपाल में धारा 144 लागू करने के साथ सन् 1948 के एक कानून से मजिस्ट्रेटों को विशेष अधिकार दिए गए हैं। विधायकों की स्वास्थ्य जांच या एक जगह भीड़ इकट्ठा होने के नाम पर यदि विशेष सत्र को स्पीकर द्वारा रोका गया तो उसे चुनौती देना मुश्किल होगा। मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और इस आधार पर भी स्पीकर राज्यपाल के आदेश के पालन में टालमटोल कर सकते हैं।"

राज्यपाल के आदेश की नाफरमानी के बाद क्या आपको मध्य प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू होने की संभावना नजर आ रही है? इस सवाल पर एडवोकेट गुप्ता ने कहा, "राष्ट्रपति शासन लगाने की दो स्थितियां बन सकती हैं, पहला कि राज्य सरकार ने बहुमत खो दिया है। इस बारे में फैसला विधानसभा के पटल पर ही हो सकता है। दूसरा, जब मुख्यमंत्री राज्यपाल के निर्देशों का पालन नहीं करेंगे तो संवैधानिक विफलता की स्थिति में भी राज्यपाल राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर सकते हैं। इस स्थिति में राज्य सरकार भी मामले को सुप्रीम कोर्ट में लाएगी, जिसके बाद अंततोगत्वा विधानसभा के पटल पर ही बहुमत का फैसला होगा।"

सुप्रीम कोर्ट मंगलवार को सुनवाई के दौरान किस आधार पर क्या फैसला दे सकता है? यह पूछे जाने पर उन्होंने कहा, "सुप्रीम कोर्ट इस मामले में कमल नाथ सरकार को निश्चित अवधि के भीतर विधानसभा के पटल पर बहुमत साबित करने का निर्देश दे सकता है, लेकिन इस मामले में बकाया विधायकों के इस्तीफे स्वीकार नहीं किए जाने पर मामला अटका है, जिस पर स्पीकर को फैसला लेना है। सुप्रीम कोर्ट विधानसभा की कार्यवाही के सीधे प्रसारण का भी निर्देश दे सकता है।"

एडवोकेट गुप्ता ने कहा कि कांग्रेस के बागी मंत्रियों के इस्तीफे स्वीकार कर लिया गए हैं। यदि 6 विधायकों का विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा मंजूर कर लिया गया तो सुप्रीम कोर्ट बाकी बागी विधायकों के इस्तीफे को समय-सीमा के भीतर स्वीकार करने का आदेश स्पीकर को दे सकता है।

 

आईएएनएस
नई दिल्ली


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