यहां संकट मोचक की भूमिका में देखा जाता है रावण

Last Updated 05 Oct 2019 04:02:22 PM IST

देश भर में आयोजित रामलीलाओं खलनायक की भूमिका नजर आने वाला रावण उत्तर प्रदेश में इटावा के जसवंतनगर में संकट मोचक की भूमिका में पूजा जाता है। यहां रामलीला के समापन में रावण के पुतले को दहन करने के बजाय उसकी लकड़यिों को घर ले जा कर रखा जाता है ताकि साल भर उनके घर में विघ्न बाधा उत्पन्न न हो सके।


जसवंतनगर की रामलीला में रावण की आरती उतारी जाती है और उसकी पूजा होती है

 जसवंतनगर की रामलीला पर पुस्तक लिख चुके वरिष्ठ पाकार वेद्रवत गुप्ता ने यूनीवार्ता को बताया कि यहां रावण की ना केवल पूजा की जाती है बल्कि पूरे शहर भर मे रावण की आरती उतारी जाती है। सिर्फ इतना ही नही रावण के पुतले को जलाया नही जाता है ।

लोग पुतले की लकडियो को अपने अपने घरो मे ले जा करके रखते है ताकि वे साल भर हर संकट से दूर रह सके । कुल मिला कर रावण यहां संकट मोचक की भूमिका निभाता चला आया है। जसवंतनगर मे आज तक रामलीला के वक्त भारी हुजुम के बावजूद भी कोई फसाद ना होना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
      
साल 2010 मे यूनेस्को की ओर से रामलीलाओ के बारे जारी की गई  रिर्पोर्ट मे इस विलक्षण रामलीला को जगह दी जा चुकी है। करीब 164 साल से हर साल मनायी जाने वाली इस रामलीला का आयोजन दक्षिण भारतीय तर्ज पर मुखौटा लगाकर खुले मैदान मे किया जाता है ।

त्रिनिड़ाड की शोधार्थी इंद्रानी रामप्रसाद करीब 400 से अधिक रामलीलाओ पर शोध कर चुकी है लेकिन उनको जसवंतनगर जैसी होने वाली रामलीला कही पर भी देखने को नही मिली है।
     
यहाँ की रामलीला में रावण की आरती उतारी जाती है और उसकी पूजा होती है। हालाँकि ये परंपरा दक्षिण भारत की है लेकिन फिर भी उत्तर भारत के कस्बे जसवंतनगर ने इसे खुद में क्यों समेटा हुआ है ये अपने आप में ही एक अनोखा प्रश्न है।

जानकार बताते है कि रामलीला की शुरुआत यहाँ 1855 मे हुई थी लेकिन 1857 के गदर ने इसको रोका फिर 1859 से यह लगातार जारी है।

यहाँ रावण, मेघनाथ, कुम्भकरण ताम्बे, पीतल और लोह धातु से निर्मित मुखौटे पहन कर मैदान में लीलाएं करते हैं। शिव जी के  त्रिपुंड का टीका भी इनके चेहरे पर लगा हुआ होता है । जसवंतनगर के रामलीला मैदान में रावण का लगभग 15 फुट ऊंचा रावण का पुतला नवरात्र के सप्तमी को लग जाता है। दशहरे वाले दिन रावण की पूरे शहर में आरती उतार कर पूजा की जाती है और जलाने की बजाय रावण के पुतले को मार मारकर उसके टुकड़े कर दिये जाते हैं और फिर वहां मौजूद लोग रावण के उन टुकड़ों को उठाकर घर ले जाते हैं । जसवंतनगर मे रावण की तेरहवीं भी की जाती है।
      
दशहरा पर जब रावण अपनी सेना के साथ युद्ध करने को निकलता है तब यहाँ उसकी धूप-कपूर से आरती होती है और जय-जयकार भी होती है। दशहरा के दिन शाम से ही राम और रावण के बीच युद्ध शुरू हो जाता है जो कि डोलों पर सवार होकर लड़ा जाता है। रात दस बजे के आसपास पंचक मुहूर्त में रावण के स्वरुप का वध होता हैं पुतला नीचे गिर जाता है । एक और खास बात यहाँ देखने को मिलती है जब लोग  पुतले की बांस की खप्पची, कपड़े और उसके अंदर के अन्य सामान नोंच नोंच कर घर ले जाते है । उन लोगों का मानना है कि घर में इन लकड़ियों और सामान को रखने से भूत-प्रेत का प्रकोप नहीं होता ।

जसवंतनगर की रामलीला में लंकापति रावण के वध के बाद पुतले का दहन नहीं होता है, बल्कि उस पर पत्थर बरसा कर और लाठियों से पीटकर धराशायी कर देते हैं। इसके बाद रावण के पुतले की लकड़ियां बीन-बीन कर घरों में ले जाकर रखते हैं। लोगों की मान्यता है कि इस लकड़ी को घर में रखने से विद्वता आती है और धन में बरक्कत होती है। इस लोक मान्यता का असर यह है कि रावण वध के बाद पुतले की लकड़ी के नाम पर मैदान में कुछ नहीं बचता है। दूसरी खास बात यह है कि यहां रावण की तेरहवीं भी मनाई जाती है, जिसमें कस्बे के लोगों को आमंत्रित किया जाता है।

विश्व धरोहर में शामिल जमीनी रामलीला के पात्रों से लेकर उनकी वेशभूषा तक सभी के लिए आकषर्क का केन्द्र होती है । भाव भंगमाओ के साथ प्रदर्शित होने वाली देश की एकमात्र अनूठी रामलीला में कलाकारों द्वारा पहने जाने वाले मुखौटे प्राचीन तथा देखने में अत्यंत आकषर्क प्रतीत होते हैं । इनमें रावण का मुखौटा सबसे बड़ा होता है तथा उसमें दस सिर जुड़े होते हैं। ये मुखौटे विभिन्न धातुओं के बने होते हैं तथा इन्हें लगा कर पात्र मैदान में युद्ध लीला का प्रदर्शन करते है ।इनकी विशेष बात यह है कि इन्हें धातुओं से निर्मित किया जाता है तथा इनको प्राकृतिक रंगों से रंगा गया है। सैकड़ों वर्षों बाद भी इनकी चमक और इनका आकषर्ण लोगों को आकषिर्त करता है ।

समिति के प्रबंधक राजीव गुप्ता बबलू का कहना है कि यहा की रामलीला पहले सिर्फ दिन हुआ करती है लेकिन जैसे प्रकाश का इंतजाम बेहतर होता गया तो इसको रात को भी कराया जाने लगा है । यह हमारे के लिए सबसे बडी खुशी की बात यह है कि यहॉ की रामलीला को यूनेस्को की रिर्पोट मे जगह मिली हुई है । उनके पूर्वज सौराष्ट्र के रहने वाले थे लेकिन आजादी से पहले आये संकट के चलते भाग कर यहॉ तक पहुंचे फिर यही के हो लिए उसके बाद रामलीला की शुरूआत हुई ।

रामलीला समिति के सह प्रबंधक अजेंद्र गौर कहना है कि यहॉ की रामलीला अनोखी इसलिये होती है क्योंकि रामलीला का प्रर्दशन खुले मैदान मे होता है । दक्षिण भारतीय शैली मे हो रही इस रामलीला मे असल पात्रो को बनाये जाने के लिये उनके पास पूरे परंपरागत कपडे और मुखौटो के अलावा पूरे शस्त्र देखने के लिये मिलते है ।

32 साल तक रावण का किरदार निभाने वाले विपिन बिहारी पाठक की को बेटा धीरज पाठक अपने पिता की मौत के बाद पिछले 12 सालो से अपने पिता की तरह ही रावण का पात्र बखूवी अदा कर रहा है । वो कहते है कि उनको रावण के पात्र मे आंनद आता है क्योंकि राम के हाथो मे मारे जाने का सौभाज्ञ जो हासिल होता है वह अपने आप मे मन को सुकून देने वाला होता है ।
 

 

वार्ता
इटावा


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