राज्यपाल विधेयकों की विधायी क्षमता की जांच नहीं कर सकते: पश्चिम बंगाल ने शीर्ष अदालत में कहा
पश्चिम बंगाल सरकार ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय से कहा कि राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक की विधायी क्षमता की जांच नहीं कर सकते।
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प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ को पश्चिम बंगाल की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने बताया कि आजादी के बाद से शायद ही कोई ऐसा उदाहरण हो जहां राष्ट्रपति ने संसद द्वारा पारित किसी विधेयक को इस कारण से रोका हो कि जनता की यही इच्छा है।
राष्ट्रपति को विधेयक भेजे जाने (प्रेसीडेंशियल रेफरेंस) और इस बारे में सुनवाई का सातवां दिन है कि क्या न्यायालय राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति के विचार करने के लिए समय-सीमा निर्धारित कर सकता है।
पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति एएस चंदुरकर भी शामिल हैं।
सिब्बल ने पीठ के समक्ष अपनी दलीलें पेश करते हुए कहा कि किसी विधेयक की विधायी क्षमता का परीक्षण अदालतों में किया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘‘किसी कानून को नागरिकों या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अदालत में चुनौती दी जा सकती है। यह अत्यंत दुर्लभ और दुर्लभतम मामला है कि राज्यपाल यह कहें कि मैं विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता और इसे रोक सकता हूं।’’
सिब्बल ने कहा कि संसद संप्रभु है और लोगों की इच्छा को तत्काल लागू करने की आवश्यकता है।
प्रधान न्यायाधीश गवई ने सिब्बल से पूछा कि क्या राज्यपाल, यह पाते हुए कि केंद्रीय कानून के संदर्भ में विधेयकों में विरोधाभास है, राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को सुरक्षित नहीं रखते?
सिब्बल ने कहा कि यह एक दुर्लभ मामला है, लेकिन जब कोई विधेयक विधायिका द्वारा पारित किया जाता है, तो संवैधानिकता की एक पूर्वधारणा होती है, जिसका परीक्षण न्यायालय में किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने सिब्बल से कहा कि तब राज्यपाल को यह देखने के लिए अपने विवेक का प्रयोग करना होगा कि विधेयक विरोधाभासी है या नहीं, हालांकि कोई भी व्यक्ति रूपरेखा पर तर्क दे सकता है, लेकिन वह केवल एक डाकिया या एक सुपर विधायी निकाय नहीं हो सकता।
सिब्बल ने कहा, ‘‘राज्य विधानमंडल की संप्रभुता संसद की संप्रभुता जितनी ही महत्वपूर्ण है। क्या राज्यपाल को इसमें देरी करने की अनुमति दी जानी चाहिए? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है... आप मतभेद पैदा नहीं कर सकते... अन्यथा यह टूट जाएगा।’’
उन्होंने कहा, ‘‘संविधान की व्याख्या इस तरह से की जानी चाहिए कि वह व्यावहारिक हो। इस न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि मतभेद का कोई क्षेत्र न हो। इसलिए यहां मुख्य शब्द यथाशीघ्र था। इसमें तात्कालिकता का एक तत्व है... यह जनता की इच्छा है।’’ सुनवाई जारी है।
मंगलवार को, शीर्ष अदालत ने कहा था कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति मूल संरचना का हिस्सा है और अदालतें संवैधानिक प्रश्नों के उत्तर देने से इनकार नहीं कर सकतीं, भले ही विवाद राजनीतिक प्रकृति का ही क्यों न हो।
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