मुगल साम्राज्य, ब्रितानी हुकूमत और आजादी के बाद भी अनसुलझा रहा था अयोध्या मसला

Last Updated 10 Nov 2019 12:15:51 PM IST

मुगल साम्राज्य, औपनिवेशिक शासन.. और फिर स्वतंत्रता के बाद भी दशकों तक अनसुलझा रहा अयोध्या राम जन्म भूमि विवाद आखिरिकार नौ नवम्बर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद समाप्त हो गया।


सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को कहा कि 1989 में ‘भगवान श्रीराम लला विराजमान’ की ओर से दायर याचिका बेवक्त नहीं थी क्योंकि अयोध्या में विवादित मस्जिद की मौजूदगी के बावजूद उनकी ‘पूजा-सेवा’ जारी रही।         

प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने मुसलमान पक्ष की इस दलील को खारिज कर दिया कि राम लला विराजमान की ओर से दायर याचिका बेवक्त है क्योंकि घटना 1949 की है और याचिका 1989 में दायर की गयी है।           

अयोध्या में विवादित स्थल राम जन्मभूमि पर मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करते हुये केन्द्र सरकार को निर्देश दिया कि ‘सुन्नी वक्फ बोर्ड’ को मस्जिद के निर्माण के लिये पांच एकड़ भूमि आबंटित की जाये।    

भारतीय इतिहास की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण इस व्यवस्था के साथ ही करीब 130 साल से चले आ रहे इस संवेदनशील विवाद पर परदा गिर गया। देश का सामाजिक ताना बाना इस विवाद के चलते बिखरा हुआ था।      

मुगल बादशाह बाबर के कमांडर मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण 1528 में कराया था। यह पाया गया कि यह स्थल दशकों से ’निरंतर संघर्ष’ का एक केन्द्र रहा और 1856-57 में, मस्जिद के आसपास के इलाकों में हिंदू और मुसलमानों के बीच कई बार दंगे भड़क उठे।      

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दो धार्मिक समुदायों के बीच कानून-व्यवस्था और शांति बनाए रखने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने परिसर को भीतरी और बाहरी बरामदे में विभाजित करते हुए छह से सात फुट ऊंची गिल्र-ईंट की दीवार खड़ी की। भीतरी बरामदे का इस्तेमाल मुसलमान नमाज पढने के लिए और बाहरी बरामदे का इस्तेमाल हिंदू पूजा के लिए करने लगे ।       
इस विवाद में पहला मुकदमा ‘राम लला’ के भक्त गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी, 1950 को दायर किया था। इसमें उन्होंने विवादित स्थल पर हिन्दुओं के पूजा अर्चना का अधिकार लागू करने का अनुरोध किया था। उसी साल, पांच दिसंबर, 1950 को परमहंस रामचन्द्र दास ने भी पूजा अर्चना जारी रखने और विवादित ढांचे के मध्य गुंबद के नीचे ही मूर्तियां रखी रहने के लिये मुकदमा दायर किया था। लेकिन उन्होंने 18 सितंबर, 1990 को यह मुकदमा वापस ले लिया था। बाद में, निर्मोही अखाड़े ने 1959 में 2.77 एकड़ विवादित स्थल के प्रबंधन और शेबैती अधिकार के लिये निचली अदालत में वाद दायर किया।      

इसके दो साल बाद 18 दिसंबर 1961 को उप्र सुन्नी वक्फ बोर्ड भी अदालत में पहुंचा गया और उसने बाबरी मस्जिद की विवादित संपत्ति पर अपना मालिकाना हक होने का दावा करते हुये इसे बोर्ड को सौंपने और वहां रखी मूर्तियां हटाने का अनुरोध किया।      

अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा गिराये जाने की घटना और इसे लेकर देश में हुये सांप्रदायिक दंगों के बाद सारे मुकदमे इलाहाबाद उच्च न्यायालय को निर्णय के लिये सौंप दिये गये थे।      

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 30 सितंबर, 2010 के फैसले में 2.77 एकड़ विवादित भूमि तीन पक्षकारों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला- के बीच बांटने के आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी थी।      
 

भाषा
नई दिल्ली


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment