दीपावली पर जुआ खेलना माना जाता है ‘शगुन‘, भगवान शिव ने भी पार्वती संग खेला था ये खेल...

Last Updated 18 Oct 2017 12:29:38 PM IST

ज्योति पर्व दीपावली पर जुआ खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है. इस त्योहार पर लोग जुआ शगुन के रूप में खेलते हैं.


जब भगवान शिव ने पार्वती संग खेला था जुआ (फाइल फोटो)

हांलाकि भारत में जुआ खेलना सामाजिक बुराई मानी जाती है और सरकार ने भी इस पर पाबंदी लगा रखी है लेकिन ज्योति पर्व दीपावली पर जुआ खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है.

मान्यताओं के अनुसार, दीपावली पर जुआ खेलने को बुराई नहीं समझा जाता है. ऐसा माना जाता है कि अधिकतर जुआरी सबसे पहले दीपावली की रात जुआ खेलने की शुरूआत करते हैं. यह भी देखा जाता है कि लोगों ने दीपावली पर शौक या शगुन के रूप में जुआ खेलने की शुरआत की और उसमें हारने पर हारी हुई रकम हासिल करने के लिए आगे भी जुआ खेला जिससे उन्हें इसकी लत लग गई. 
       
समय-समय पर कराये गये सव्रेक्षण में भी यह बात निकाल कर सामने आई है कि दीपावली के दिन देश के लगभग 45 प्रतिशत लोग जुआ खेलते हैं. इनमें करीब 35 प्रतिशत लोग शगुन के तौर पर जुआ खेलते हैं लेकिन 10 प्रतिशत लोग ऐसे होते हैं जो जुआरी होते हैं जो किसी भी मौके पर जुआ खेलने से परहेज नहीं करते हैं.
       
जुआ खेलने की परम्परा बहुत पुरानी रही है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, दीपावली की रात भगवान शिव के साथ उनकी पत्नी पार्वती ने भी जुआ खेला था.

बाद में यह धारणा बन गई कि जो व्यक्ति दीपावली के दिन जुआ खेलेगा, उसके परिवार में पूरे वर्ष सुख-समृद्धि कायम रहेगी.
 
ऋग्वेदकालीन ग्रंथो में बताया गया है कि आर्य जुए को आमोद-प्रमोद के साधन के रूप में इस्तेमाल करते थे. उस काल में पुरूषों लिए जुआ खेलना समय बिताने का साधन था. जुए से जुड़े विभिन्न खेलों की अनेक ग्रंथों में चर्चा की गई है. अथर्ववेद के अनुसार, जुआ मुख्यत: पासों से खेला जाता था. अथर्ववेद वरण देव का वर्णन करते हुए कहता है कि वह वि को वैसे ही धारण करते हैं जैसे कोई जुआरी पासों से खेलता हो.
              
महाभारत में उल्लेख है कि दुयरेधन ने पांडवों का राज्य हड़पने के लिए युधिष्ठिर को जुए के शिकंजे में फंसा दिया था. युधिष्ठिर ने जुए में अपना सब कुछ लुटाने के बाद अपनी पत्नी द्रौपदी को भी दाव पर लगा दिया और उसे हार गए. यह जुआ भीषण संग्राम यानी महाभारत का कारण बना था.


               
सार्वजनिक मनोरंजन के लिए भी जुआ खेलने का प्रचलन रहा है. मौर्यकालीन समाज में इस खेल का जिक्र किया गया है. विदेशी राजदूत मेगस्थनीज ने मौर्यकालीन वैभव का जिक्र करते हुए लिखा है कि भारतीय भड़किले वस और आभूषणों के प्रेमी हैं तथा वैभव और विलासिता को दिखाने के लिए जुआ खेलते थे.

वात्स्यायन के कामसूा में  आरामदायक और आनन्दपूर्ण जीवन का वर्णन करते हुए सामान्य गृहस्थ के शयन  कक्ष में जुआ और ताश खेलने की बात कही गई है. इस साहित्य में जुए में ताश  को भी शामिल किया गया है. उस समय कौड़ी और पासे से भी जुआ खेला जाता था. जिसे हम चौसर कहते हैं.
                             
पालि भाषा के बौद्ध ग्रंथ. मिलिन्दपन्ह. में भी जुआ खेलने का  वर्णन है. मौर्यकालीन भारत में भी जुआ खेलने का वर्णन है लेकिन उस समय जो  जुआ खेला जाता था. वह राज्य के नियांण में होता था. उस दौर में समृद्ध  लोग मनोरंजन के साधन के रूप में जुआ खेलते थे लेकिन बाद में यह विलासिता का  साधन बन गया.
                    
 ईसा बाद दसवीं शताब्दी में भी द्यूतक्रीडा का प्रचलन था. इतिहासकारों का मानना है कि इस दौरान शासक वर्ग अपनी पत्नियों  के साथ झूले पर बैठकर शराब पीते हुए पासों से जुआ खेला करते थे.

 

वार्ता


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