आदत
जिन कार्यों या बातों को मनुष्य दुहराता रहता है, वे स्वभाव में सम्मिलित हो जाती हैं, और समय के साथ आदतों के रूप में प्रकट होती हैं।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
कई मनुष्य आलसी प्रवृत्ति के होते हैं। यों जन्मजात दुर्गुण किसी में नहीं हैं। अपनी गतिविधियों में इस प्रवृत्ति को सम्मिलित कर लेने और उसे समय-कुसमय बार-बार दुहराते रहने से वैसा अभ्यास बन जाता है। ये समग्र क्रिया-कलाप ही अभ्यास बन कर इस प्रकार आदत बन जाते हैं।
इस प्रकार से कि मानो वे जन्मजात ही हों। या किसी देव दानव ने उस पर थोप दिया हो। पर वस्तुत: यह अपना ही कर्तृत्व होता है जो कुछ ही दिन में बार-बार प्रयोग से ऐसा मजबूत हो जाता है कि मानो वह अपने ही व्यक्तित्व का अंग हो और वह किसी अन्य द्वारा ऊपर से लाद दिया गया हो।
जिस प्रकार बुरी आदतें अभ्यास में आते रहने के कारण स्वभाव बन जाती हैं, और फिर छुड़ाए नहीं छूटतीं, वैसी ही बात अच्छी आदतों के सम्बन्ध में भी होती है यानी अच्छी आदतों के संबंध में भी यही बात लागू होती है। हंसते-मुस्कुराते रहने की आदत ऐसी ही है। उसके लिए कोई महत्त्वपूर्ण कारण होना आवश्यक नहीं। आम तौर से सफलता या प्रसन्नता के कोई कारण उपलब्ध होने पर ही चेहरे पर मुसकान उभरती है।
किन्तु कुछ दिनों बिना किसी विशेष कारण के भी मुस्कुराते रहने की स्वाभाविक पुनरावृत्ति करते रहने पर वैसी आदत बन जाती है। फिर उसके लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं पड़ती है, और लगता है कि व्यक्ति कोई विशेष सफलता प्राप्त कर चुका है। साधारण मुस्कान से भी सफलता मिलकर रहती है। क्रोधी स्वभाव के बारे में भी यही बात है। कई व्यक्ति अनायास ही चिड़िचड़ाते रहते देखे गए हैं।
अपमान, विद्वेष या आशंका जैसे कारण रहने पर तो खीझते रहने की बात समझ में आती है, पर आश्चर्य तब होता है कि कोई प्रतिकूल परिस्थिति न होने पर भी लोग खीझते-झल्लाते-चिड़िचड़ाते देखे जाते हैं। कहना न होगा कि यह और कुछ नहीं, बल्कि उसके कुछ दिन के अभ्यास का प्रतिफल है। अभ्यास से जहां अच्छे गुणों को सहेजा जा सकता है, वहीं बुरी आदतों से भी निरंतर अभ्यास के बल पर बचे रहा जा सकता है।
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