अतिरेक

Last Updated 13 Jun 2022 12:09:06 AM IST

जिस प्रकार आवश्यकता को आविष्कार की जननी कहा जाता है, इसी प्रकार दु:ख को सुख का जनक मान लिया जाए तो अनुचित न होगा।


श्रीराम शर्मा आचार्य

 जिसके सम्मुख दु:ख आते हैं, वही सुख के लिए प्रयत्न करता है। दु:ख, तकलीफ ही पुरु षार्थी व्यक्ति की क्रियाशीलता पर धार रखती हैं, अन्यथा मनुष्य निकम्मा तथा निर्जीव होकर मृतक तुल्य बन कर रह जाए। सुख में अत्यधिक प्रसन्न होना भी दु:ख का विशेष कारण है। साधारण नियम है कि जो अनुकूल परिस्थितियों में खुशी से पागल हो उठेगा, उसी अनुपात से प्रतिकूल परिस्थितियों में दु:खी होगा।

दु:ख से बचने का एक उपाय यह भी है कि सुख की दशा में भी बहुत प्रसन्न न हुआ जाए। जब-जब मनोनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हों, सुख का अवसर मिले तब-तब साधारण मनोभाव से उसका स्वागत कीजिए।  हष्रातिरेकता में न आइए। हर्ष के समय जो अपना संतुलन बनाए रखता है, विषाद के अवसर पर भी सुरक्षित रहता है। हर्ष के समय ठीक बात भी गलत लगती है। इस प्रकार बुद्धि भ्रम हो जाने से दु:ख के कारणों की कोई कमी नहीं रहती। हर्ष के समय जब हमें किसी की कोई बात अथवा काम गलत होने पर भी ठीक लगेगी तो फिर भ्रमवश किसी समय भी वैसा कर सकते हैं, और तब हमें क्षोभ होगा, जिससे दुखी होना स्वाभाविक ही है।

किसी मनुष्य की भावुकता जब अपनी सीमा पार कर जाती है तो वह भी दु:ख का विशेष कारण बन जाती है। अत्यधिक भावुक तुनुक मिजाज हो जाता है। एक बार वह सुख में भले ही प्रसन्न न हो किन्तु मन के प्रतिकूल परिस्थितियों में वह अत्यधिक दु:खी हुआ करता है। अत्यधिक भावुक कल्पनाशील भी हुआ करता है। वे इसके एक छोटे से आघात को पहाड़ जैसा अनुभव करता है। एक क्षण दुख के लिए घंटों दु:खी रहता है।

जिन बहुत सी घटनाओं को लोग महत्त्वहीन समझ कर दूसरे दिन ही भूल जाया करते हैं, भावुक व्यक्ति उनको अपने जीवन का एक अंग बना लेता है, स्वभाव का एक व्यसन बना लिया करता है। भावुक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील होता है। यहां तक कि एक बार दु:खी व्यक्ति तो अपना दु:ख भूल सकता है किन्तु भावुक व्यक्ति उसके दु:ख को अपनाकर महीनों दु:खी होता रहता है। आवश्यक भावुकता तथा संवेदनशीलता ठीक है किन्तु इसका सीमा से आगे बढ़ जाना दु:ख का कारण बन जाता है।



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