भक्त

Last Updated 13 May 2022 02:10:06 AM IST

प्रकृति और पुरुष दो नहीं हैं। आत्मा और परमात्मा दो नहीं हैं। दृश्य और दृश्या दो नहीं हैं।


आचार्य रजनीश ओशो

भक्ति की यह आधारशिला है कि एक होने का उपाय है। एक होने का उपाय तभी हो सकता है, जब वस्तुत: हम एक हों ही। यथार्थ से अन्यथा नहीं हो सकता। भक्त भगवान से मिल सकता है तभी, जब मिला ही हुआ हो। जब पूर्व से ही मिला हो, जब प्रथम से ही विरह न हुआ हो, बिछुडन न हुई हो।

आम का बीज बोते हैं, आम पैदा होता है। आम इसलिए पैदा होता है कि आम छिपा था, आम था ही। नहीं तो कंकड़ बोते तो आम पैदा हो जाता। जो छिपा है, वह प्रकट होता है। इस जगत में वही मिलता है जो मिला ही हुआ है। भेद इतना ही पड़ता है कि छिपा था, अब प्रकट हुआ। तुम भगवान हो, लेकिन अभी बीज की नाइ; जब वृक्ष की नाइ होओगे, तब जानोगे, तब पहचानोगे।

शांडिल्य कहते हैं : दोनों प्रथम से ही एक हैं। कभी अलग हुए नहीं। अलग होना भ्रांति है। अलग होना हमारे मन का भ्रम है। और यह भ्रम हम ने इसलिए पैदा किया है कि इसी अलग होने के भ्रम के आधार पर अहंकार पाला-पोसा जा सकता है। यदि तुम परमात्मा हो तो तुम रहे ही नहीं, परमात्मा रहा। बूंद डरती है सागर होने से-बूंद सागर हो जाएगी तो बूंद नहीं रह जाएगी, उसका मूल चरित्र बदल जाएगा, उसकी पहचान अलग हो जाएगी, सागर ही रहेगा। विराट के साथ मिलने में भय लगता है।

आकाश के साथ जुड़ना दुस्साहस की बात है। इसलिए भक्त को दुस्साहसी होना ही होगा। बूंद अपने को खोने चली है। छोटी सी बूंद इतने विराट सागर में। फिर न पता लगेगा, न ओर-छोर मिलेगा; फिर अपने से शायद कभी मिलना भी न हो; इतनी खोने की जिसकी हिम्मत है, वही भक्त हो सकता है। और जो भक्त हो सकता है, वही भगवान हो सकता है। सीधे रूप में कह सकते हैं भक्त होने का अर्थ है, बीज ने अपने को तोड़ने का निर्णय लिया। तुम जमीन में बीज को बोते हो, जब तक बीज टूटे नहीं, वृक्ष नहीं होता; जब तक बीज मिटे नहीं तब तक अंकुरण नहीं होता; बीज की मृत्यु ही वृक्ष का जन्म है। यानी किसी की मृत्यु होना, दूसरे के जन्म लेने की शुरुआत है। तुम्हारी मृत्यु ही भगवान का आविर्भाव है। भक्त जहां मरता है, वहीं भगवत्ता उपलब्ध होती है।



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