विपश्यना
ईश्वर समर्पण! विपश्यना मनुष्य-जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्तवपूर्ण ध्यान-प्रयोग है।
![]() आचार्य रजनीश ओशो |
जितने व्यक्ति विपश्यना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपश्यना अपूर्व है! विपश्यना शब्द का अर्थ होता है : देखना, लौटकर देखना। मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है।
बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है इस पृथ्वी पर जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है। बुद्ध कहते : आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। और जिसने देख लिया, उसे मानना थोड़े ही पड़ता है, मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी, दिखाने की जो प्रक्रिया थी, उसका नाम है विपश्यना। विपश्यना बड़ा सीधी-सरल प्रयोग है। अपनी आती-जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव। श्वास जीवन है।
श्वास से ही तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह जुड़ी है। श्वास सेतु है। इस पार देह है, उस पार चैतन्य है, मध्य में श्वास है। यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्यरूपेण, अपरिहार्य रूप से, शरीर से तुम भिन्न अपने को जानोगे। श्वास को देखने के लिए जरूरी हो जाएगा कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ। बुद्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो। लेकिन श्वास को देखने का और कोई उपाय ही नहीं है। जो श्वास को देखेगा, वह श्वास से भिन्न हो गया, और जो श्वास से भिन्न हो गया वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया।
क्योंकि शरीर सबसे दूर है, उसके बाद श्वास है; उसके बाद तुम हो। अगर तुमने श्वास को देखा तो श्वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्यरूपेण छूट गए। शरीर से छूटो, श्वास से छूटो, तो शात का दर्शन होता है। उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊंचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी न तो कोई ऊंचाइयां हैं जगत में, न कोई गहराइयां हैं जगत में। बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है।
फिर, श्वास अनेक अथरे में महत्त्वपूर्ण है। यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है, करु णा में दूसरे ढंग से। दौड़ते हो, एक ढंग से चलती है; आहिस्ता चलते हो, दूसरे ढंग से चलती है। चित्त ज्वरग्रस्त होता है, एक ढंग से चलती है; तनाव से भरा होता है, एक ढंग से चलती है, और चित्त शांत होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है।
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