भूलों को सुधारें
हमारा तात्पर्य यह नहीं कि आप भूलों, त्रुटियों और गलतियों की ओर से आंखें बंद कर लें और बार-बार उनको दुहराते चलें, आपको चाहिए कि ‘भूलों की पुनरावृत्ति रोकने का भरसक प्रयत्न करें।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
फिर भी यदि कभी ठोकर खाकर गिर पड़ें, प्राचीन बुरे संस्कारों के खिंचाव से परास्त होकर कोई गलती कर बैठें तो उसकी विशेष चिंता न करें। सच्चा पश्चाताप यही है कि दुबारा वैसी गलती न करने का प्रणकिया जाए। उपवास आदि से आत्मशुद्धि की जाए।
जिसे हानि पहुंचती है उसकी या उसके समक्ष की क्षति पूर्ति कर दी जाए। मन पर जो बुरी छाप पड़ी है, अच्छे कार्य की छाप द्वारा हटाई जाए। साबुन से मैला कपड़ा स्वच्छ किया जाता है, भूलों का परिमार्जन, श्रेष्ठ कार्यों द्वारा करने के लिए खुला द्वार आपके सामने मौजूद है, फिर अप्रिय स्मृतियों को जगाने का क्या प्रयोजन? यदि सदैव अपने ऊपर दोषारोपण ही करते रहेंगे, अपने को कोसते ही रहेंगे, र्भत्सना, ग्लानि और तिरष्कार में जलते रहेंगे तो अपनी बहुमूल्य योग्यताओं को खो बैठेंगे, अपनी कार्यकारिणी शक्तियों नष्ट कर डालेंगे। अपने को अयोग्य मत मानिए।
ऐसा विश्वास मत कीजिए कि आपमें मूर्खता, दुर्भावना, कमजोरी के तत्त्व अधिक हैं। इस प्रकार की मान्यता को मन में स्थान देना गिराने वाला और आत्मघाती है। किसी भी प्रकार नहीं माना जा सकता कि मानव शरीर के इतने ऊंचे स्थान पर चढ़ता आ पहुंचने वाला जीव अपने में बुराइयां अधिक भरे हुए है। यदि सचमुच ही वह नीची श्रेणी की योग्यताओं वाला होता तो किसी कीट-पतंग या पक्षी की योनि में समय बिताता होता।
उन योनियों को उत्तीर्ण करके मनुष्य योनि में, विचारपूर्ण भूमिका में प्रवेश करने का अर्थ ही यह है कि मानवोचित सुणों का पर्याप्त मात्रा में विकास हो गया है। भले ही आप अन्य सुणी लोगों से कुछ पीछे हों पर इसी कारण अपने को पतित क्यों समझें? एक से एक आगे है, एक से एक पीछे है। इसलिए इस प्रकार तो बड़े भारी बुद्धिमान को भी कहा जा सकता है क्योंकि उससे भी अधिक बुद्धिमान भी कोई न कोई निकल ही आवेगा। इस सत्य को खुले ह्रदय से स्वीकार करके गहरे अंत:स्थल में उतार लीजिए कि आपकी सुयोग्यता बढ़ी हुई है, आप श्रेष्ठ हैं, सक्षम हैं, उन्नतिशील हैं। बाकी की चिंता करने का कोई मतलब नहीं रह जाता।
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