जीवन में स्थिरता
एक स्तर पर आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब होता है पर्वत की तरह स्थिर हो जाना।
![]() सद्गुरु |
जब किसी इंसान का आधार बहुत स्थिर होता है, केवल तभी वह बहुत सारी चीजें कर सकता है। लोग अपने जीवन को काबू करके, उसमें कमी करके या काट-छांट करके उसे स्थिर करना चाहते हैं। यह आपकी दादी-नानी का तरीका है, जो आपसे हमेशा कहती होंगी, ‘अपने को काबू करो, तभी तुममें स्थिरता आएगी।’
आम तौर पर जो लोग स्थिरता की बात करते हैं, उनका अस्तित्व घुटा हुआ है। एक तरह से वे कब्जियत वाला जीवन जी रहे हैं। कब्ज का मतलब है कि यह थोड़ी-थोड़ी हो रही है। इसी तरह लोगों के जीवन में खुशी, प्यार, परमानंद, यहां वहां से थोड़ा-थोड़ा मिलता है। स्थिरता यह नहीं है-कि आपने अपने जीवन को इतना सीमित कर लिया है, संकुचित कर लिया है कि आप स्थिर हो गए हैं।
स्थिरता वह है, जहां आप सब कुछ पूरी स्पष्टता के साथ देख सकें। इसीलिए आदि योगी का जिक्र होता है, क्योंकि हम लोग स्थिरता के साथ-साथ उल्लास से भरे नृत्य की बात भी करते हैं। दशर्न का मतलब देखना होता है। यह पूरी संस्कृति इसी के बारे में बात करती आई है। आप मंदिर कोई अरजी देने नहीं, बल्कि दशर्न के लिए जाते हैं, जिससे आप बेहतर देखने के काबिल हो सकें। बुनियादी तौर पर लोग जीवन में सामने की चीजों को भी नहीं देख पाते, तो उसकी वजह सिर्फ इतनी है कि उन लोगों ने जीवन में बहुत सारी चीजों के साथ अपनी पहचान बना कर रखी है।
यह पहचान शरीर के साथ शुरू होती है, फिर आगे जाकर उसमें कई और चीजें जुड़ जाती हैं। जैसे ही आप किसी चीज के साथ पहचान बनाते हैं, आपके पूरे मन को यह समझ आ जाता है, कि इसे सुरक्षित रखने की जरु रत है, और फिर वो पूरी तरह से उसकी सुरक्षा के लिए काम करने लगता है। अब आप पूछेंगे, ‘तो मैं अपने देश के साथ, धर्म के साथ और जाति के साथ पहचान कैसे खत्म करूं?’ पहचान खत्म करने के लिए आपको इन सारी चीजों को खत्म करने की जरूरत नहीं है।
अगर आप अपने शरीर से अपनी पहचान खत्म कर लेते हैं, तो बाकी पहचान अपने आप खत्म हो जाती हैं। हर चीज आपके शरीर की सीमित चारदीवारी के साथ आपकी पहचान का विस्तारित रूप है।
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