धर्म और आनंद
चारों तरफ देखेंगे, तो दिखाई पड़ेगा, मनुष्य को छोड़ कर सारी प्रकृति में एक अदभुत प्रकार का संगीत है।
![]() आचार्य रजनीश ओशो |
पशुओं में, पक्षियों में, पौधों में एक अलौकिक संगीत और शांति है, लेकिन मनुष्य में नहीं। यह तथ्य आश्चर्यजनक है। मनुष्य में तो और भी गहरा संगीत और शांति होनी चाहिए। क्योंकि उसके पास विचार है, विवेक है, सोचने और समझने की क्षमता है, लेकिन उलटा हुआ है, हमारी सारी सोचने-समझने की क्षमता, हमारा विवेक और विचार हमारे जीवन के शांति और आनंद में सहयोगी बनने की बजाय बाधक बन गया है। बहुत पुरानी कथा है, सुनी होगी आपने।
बाइबिल में एक बहुत पुरानी कथा है, मनुष्य आनंद में था, स्वर्ग के राज्य में था, लेकिन उसने ज्ञान का फल चखा और परमात्मा ने उसे बहिश्त के एक बगीचे से बाहर निकला दिया। यह कथा आश्चर्यजनक है, ज्ञान का फल चखने से मनुष्य के जीवन से आनंद और शांति और स्वर्ग छिन गए? ज्ञान के कारण स्वर्ग छीना, यह कथा हैरान करनी वाली है! लेकिन यह सच मालूम होती है।
तो जरूर ज्ञान को हमने कुछ गलत ढंग से पकड़ा होगा; जिसके परिणाम में जीवन की शांति और संगीत नष्ट हुए हैं। यह तो असंभव है कि ज्ञान मनुष्य के जीवन से सुख को छीन ले, लेकिन जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता गया है वैसे-वैसे यह तथ्य की बात है कि शांति और संगीत और आनंद कम होते गए हैं। मनुष्य जितना सभ्य हुआ है, जितनी ज्ञान की उसने खोज की है, उतना ही उसका जीवन उदास, दुख और पीड़ा से भर गया। उसके लिए यह व्यर्थता जीवन में आई है जितना हमारा ज्ञान बढ़ा। होना तो उलटा चाहिए, ज्ञान बढ़े तो जीवन में गहराई बढ़े, ज्ञान बढ़े तो जीवन में प्रकाश बढ़े, ज्ञान बढ़े तो जीवन में अंधकार कम हो, ज्ञान बढ़े तो जीवन में आनंद बढ़े, दुख विलीन हो, होना तो यही था, लेकिन यह हुआ नहीं। और इस बात का..के साथ-साथ जो होना था वह नहीं हुआ है।
बल्कि अब तो ऐसा लगता है कि मनुष्य का यह ज्ञान कहीं पूरी मनुष्य-जाति का अंत न बन जाए। अज्ञान ही कहीं ज्यादा आनंदपूर्ण था। होना उलटा था, नहीं वैसा हुआ तो कुछ कारण हैं। कारण यह है कि ज्ञान की सारी खोज, मनुष्य की पूरी खोज मनुष्य के बाहर जो है मात्र उससे ही संबंधित हो गई है। मनुष्य के भीतर जो छिपा है उस संबंध में हम अब भी गहरे अज्ञान में हैं।
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