धर्मतंत्र का दुरुपयोग
मित्रो! मंदिर जन-जागरण के केंद्र बनाए जा सकते हैं। मंदिरों का उपयोग लोकमंगल के लिए किया जा सकता है, क्योंकि उसके पास इमारत होती है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
इमारत तो हर सेवा केंद्र के पास होनी चाहिए, परंतु इसके अलावा वह व्यवस्था भी होनी चाहिए, जिससे कि उस क्षेत्र के कार्यकर्ताओं का, निवासियों का, गुजारे का प्रबंध किया जा सके। इस गुजारे का प्रबंध तभी हो सकता है, जब आजीविका के स्रोतों से जनता में इसके लिए त्यागवृत्ति पैदा की जा सके। मनुष्य में यह भावना पैदा की जा सके कि हमने भगवान को दिया है, तुमको नहीं। इससे आदमी का मन हलका होता है। त्याग और सेवा की वृत्ति पैदा होती है। उस धन के एक केंद्र पर इकट्ठा होने से समाज के लिए उससे उपयोगी काम किए जा सकते हैं।
प्राचीन काल में मंदिर इसी उद्देश्य से बनाए गए थे। समाज में सत्प्रवृत्तियों का विकास वास्तव में भगवान की सेवा का एक बहुत बड़ा काम है, लेकिन आज मैं क्या कहूं, मंदिरों को देखकर रोना आता है। आज मंदिर पर मंदिर बनते चले जा रहे हैं। करोड़ों रुपया खर्च होता है। क्या ऐसा संभव नहीं था कि करोड़ों रुपयों से बनने वाली इमारतों को इस ढंग से बनाया गया होता कि वहां लोकसेवा की प्रवृत्तियों के लिए गुंजाइश रहती और भगवान के निवास की भी एक छोटी-सी जगह बना दी गई होती।
अब तो सारी-की-सारी इमारतें इस काम के लिए बनाई जाती है कि उसमें केवल भगवान ही बैठें। भगवान को इतनी जगह की क्या जरूरत है? भगवान को चाहो, तो एक कोने में बिठा दो, तो भी वे मौज करेंगे। भगवान को इतने बड़े भव्य निर्माण से क्या लेना-देना? उनके लिए तो इतना बड़ा आसमान विद्यमान है। मंदिरों की इमारतों को अगर इस ढंग से बनाया गया होता कि जिनमें मदिर के साथ पाठशाला, प्रौढ़ पाठशाला, संगीत विद्यालय, वाचनालय और कथा-कीर्तन का कक्ष भी बना होता, उसके आस-पास व्यायामशाला भी होती और थोड़ी सी जगह में चिकित्सालय का भी प्रबंध होता, बच्चों के खेलने की भी जगह होती।
इस तरीके से लोकमंगल की, लोकसेवा की अनेक प्रवृत्तियों का एक केंद्र अगर वहां बना दिया गया होता और वहीं एक जगह भगवान की स्थापना होती, तो जो धन मंदिरों में चढ़ाया जाता है, उसका ठीक तरीके से उपयोग होता। ऐसी स्थिति में मंदिरों के द्वारा कितना बड़ा लाभ होता।
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