स्वभाव और संस्कार
जैसा मनुष्य का स्वभाव होता है उसी के अनुरूप उसकी मनोदशा बनती रहती है और जब वही आदत अपने जीवन का अंग बन जाती है तो उसे संस्कार मान लेते हैं।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
शराब पीना प्रारम्भ में एक छोटी सी आदत दिखती है किन्तु जब वही आदत गहराई तक जक जाती है, तो शराब के सम्बन्ध में अनेकों प्रकार की विचार रेखायें मस्तिष्क में बनती चली जाती हैं, जो एक स्थिति समाप्त हो जाने पर भी प्रेरणा के रूप में मस्तिष्क में उठा करती हैं। जैसे कोई कामुक प्रवृत्ति का मनुष्य स्वास्थ्य सुधार या किसी अन्य कारण से प्रभावित होकर ब्रह्मचर्य रहना चाहता है। इसके लिए वह तरह-तरह की योजनाएं और कार्यक्रम भी बनाता है तो भी उसके पूर्व जीवन के कामुक विचार उठने से रुकते नहीं और वह न चाहते हुए भी उस प्रकार के विचारों और प्रभाव से टकराता रहता है। यह संस्कार जैसे भी बन जाते है वैसा ही मनुष्य का व्यवहार होगा।
यहां यह न समझना चाहिए कि यदि पुराने संस्कार बुरे पड़ गये हैं, विचारों में केवल हीनता भरी है, तो मनुष्य सद्व्यवहार नहीं कर सकता। यदि पूर्व जीवन के कुसंस्कार जीवन सुधार में किसी प्रकार का रोड़ा अटकाते है तो भी हार नहीं माननी है। चूंकि अब तक अच्छे कर्म नहीं किए थे इसलिये यह पुराने कुविचार परेशान करते हैं किन्तु यदि अब विचार और व्यवहार में अच्छाइयों का समावेश करते हैं तो यही एक दिन हमारे लिए शुभ संस्कार बन जाएगा। तब यदि कुकर्मो की ओर बढ़ना चाहेंगे तो एक जबर्दस्त प्रेरणा अन्त:करण में उठेगी और हमें बुरे रास्ते में भटकने से बचा लेगी।
महर्षि वाल्मीकि, सन्त तुलसीदास, भिक्षु अंगुलिमाल, गणिका, अजामिल आदि अनेकों कुसंस्कारों में ग्रसित व्यक्ति भी जब सन्मार्ग पर चलने लगे तो उनका जीवन पुण्यमय, प्रकाशमय बन गया। मनुष्य संस्कारों का गुलाम हो जाए, अपने स्वभाव में परिवर्तन न कर सके, यह असम्भव नहीं है, यह आसान भी है और कई लोगों ने ऐसा किया भी है। मनुष्य के विचार गीली मिट्टी और संस्कार उस मिट्टी से बने बर्तन के समान होते हैं। पिछले कुसंस्कारों का बड़ा तोड़कर नये विचारों की मिट्टी से नव-जीवन घट का निर्माण कर सकते हैं। इसमें राई-रत्ती भर भी सन्देह न करना चाहिए।
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