सौंदर्य
सत्यम् शिवम् के साथ परमात्मा की तीसरी विशेषता बताई गई है सुंदरम् की। सुंदरता ही उसे प्रिय है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
उसका अंशी होने के नाते जीवात्मा भी हर सुंदर वस्तु को देखकर आकृष्ट होती है। प्रकृति के मनोरम दृश्य, हरियाली, पुष्पों से लदे उद्यान को देखकर किसका मन नहीं पुलकित होता? सौंदर्य की ओर आकषर्ण अंतरतम् की अभिव्यक्ति है, जो शात सौंदर्य की खोज करती है तथा उसे प्राप्त करने की सतत् प्रेरणा देती है।
शास्त्रों में वर्णन है कि बाह्य स्वरूप की दृष्टि से सुंदर प्रतीत होने वाला संसार मिथ्या है अर्थात् जिन बाहरी वस्तुओं में सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वे भ्रम मात्र हैं। फिर उनके प्रति आकषर्ण बोध क्यों होता है? इसका उत्तर ऋषि देते हैं कि अपना आपा ही आकषिर्त होकर विविध वस्तुओं एवं संसार को सुंदर बनाता है। सौंदर्य का दिग्दर्शन इस आरोपण की प्रतिक्रिया मात्र है, जो जड़ वस्तुओं को भी सौंदर्ययुक्त बना देता है।
तथ्य तो यह है कि शात सौंदर्य का केंद्र बिन्दु अंतरात्मा है। सौंदर्य की धाराएं यहीं से प्रस्फुटित होतीं हैं तथा गोमुख से निकलने वाली गंगा की भांति समस्त जड़-चेतन में सौंदर्य का अभिसिंचन करती हैं। यह मूल स्त्रोत यदि अपने प्रवाह को रोक दे तो सर्वत्र कुरूपता ही दिखाई पड़ने लगे। प्रतिच्छाया पड़ने मात्र से संसार एवं संबंधित वस्तुएं इतनी अनुपम प्रतीत हो सकती हैं, तो उनका मूल स्वरूप कितना विलक्षण, अनिर्वचनीय हो सकता है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कल-कल करती तीव्र वेग से बहती गंगा को देखकर मन को तृप्ति एवं शांति मिलती है।
गंगा इतनी शांत एवं तृप्तिदायक हो सकती है, तो उसका मूल स्त्रोत गोमुख का दृश्य कितना दिव्य, अनुपम एवं मनोरम होगा, इसकी तो मात्र कल्पना ही की जा सकती है अथवा वे अनुभव कर सकते हैं जो गोमुख के निकट जाकर दिव्य दर्शन का लाभ उठा चुके हैं। सौंदर्य की ओर आकषर्ण स्वाभाविक है पर देखा यह जाता है कि वस्तुओं एवं व्यक्तियों के प्रति यह आकषर्ण कुछ ही समय तक रहता है और एक अवधि के बाद धीरे-धीरे विकषर्ण में बदल जाता है और फिर मन रमण करने के लिए नये स्त्रोतों की खोज करने लग पड़ता है।
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